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आनन्द-प्रवचन भाग-४
अनात्मा क्या है ? पाप-पुण्य क्या है ? मनुष्य के लिये कर्तव्य-अकर्तव्य क्या है और आत्मा को कर्मों से मुक्त करने के साधन कौन-कौन से हैं !
'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के अठाईसवें अध्याय की तीसरी गाथा में भगवान ने कहा है
नाणं च वंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा।
एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गई ॥ अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप मार्ग को प्राप्त हुए जीव सुगति में जाते हैं।
यह शास्त्रों के वचन हैं, जिसके द्वारा संक्षेप में बताया है कि जो भव्य प्राणी मिथ्याज्ञान के धोखे में न आकर सम्यक्ज्ञान, सम्यकदर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यकतप की आराधना करते हैं वे अपने पूर्वोपाजित पापों को नष्ट करते हैं, नये पाप-कर्मों का बंधन नहीं करते और पुण्य-कर्मों का संचय करके इस जीवन के पश्चात् भी शुभ-गति प्राप्त करते हैं।
पर यह सब तभी हो सकता है जबकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप रूप धर्म को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किया जाय । जो प्राणी धर्म के सही स्वरूप को समझ लेता है, समझना चाहिए कि उसने सभी कुछ समझ लिया। क्योंकि धर्म के प्रभाव से उसकी प्रत्येक क्रिया एवं प्रत्येक व्यवहार धर्ममय हो जाता है। संक्षेप में धर्म वह मूल है, जिसके मजबूत हो जाने पर शनैः शनैः निर्वाण रूपी फल की प्राप्ति हो जाती है। आचारांग सूत्र में भी धर्म की महत्ता समझाते हुए कहा है
लोगस्स सारं धम्मो, धम्म पि य नाण सारियं बिति । नाणं संजमसारं, संजमसारं च निध्वाणं ॥
-आचारांग नि० १४४ विश्व-सृष्टि का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान यानी सम्यक्बोध है, ज्ञान का सार संयम है, और संयम का सार निर्वाण अर्थात् शाश्वत सुख की प्राप्ति है।
तो शाश्वत सुख की प्राप्ति का मूल है धर्म । और सच्चा धर्म वही अपना सकता है जो ज्ञानी हो । पर अभी मैंने आपको बताया था कि सच्चा ज्ञान प्राप्त करना भी टेढ़ी खीर है, क्योंकि मिथ्याज्ञान और अज्ञान, ये दोनों ही अपना दाँव लग जाने पर मनुष्य को गुमराह कर देते हैं तथा उसे सच्चे ज्ञान से दूर ले जाते हैं । अतः निर्वाण प्राप्ति के इच्छुक साधक को पहले विशुद्ध सम्यक् दृष्टि प्राप्त करनी चाहिए तथा उसके साथ विवेक को सहायक बनाकर
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