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आनन्द-प्रवचन भाग – ४
किन्तु इसके विपरीत ज्ञानी अपने बुद्धि-बल और विवेक के द्वारा जीव तथा जगत् के रहस्य को जान लेगा, आत्मा के शुद्ध स्वरूप की जानकारी करेगा तथा शास्त्रों का अध्ययन करके अपनी आत्मा को शुद्ध करने का और कर्मों के नाश करने का प्रयत्न करेगा । पर यह सब होगा तभी जबकि हेय - उपादेय तथा कर्तव्य - अकर्तव्य को वह अपने विवेक की कसौटी पर कसेगा । दही का मंथन करने पर ही मक्खन की प्राप्ति होती है, इसी प्रकार तर्क-वितर्क करने पर ही अज्ञान और ज्ञान की परख हो सकती है ।
इसीलिये मराठी कवि ने अज्ञान का ज्ञान करने की प्रेरणा दी है क्योंकि अज्ञान आत्मा का हित नहीं कर सकता उलटे अहित का कारण बनता है । कहा भी है
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अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं । अण्णाणमूलो संसारो, विविहो सव्वदेहिणं ॥
- ऋषिभाषित २१ - १
अज्ञान सबसे बड़ा दुख है । अज्ञान से भय उत्पन्न होता है, सब प्राणियों के संसारर-भ्रमण का मूल कारण अज्ञान ही है ।
तो मराठी कवि ने अज्ञान का नाश करने की प्रेरणा के साथ-साथ अंतर तम में ज्ञान की स्थापना करने के लिये भी कहा है । पर उसके लिये एक शर्त भी रखी है कि ज्ञान-मार्ग में दो बाधाएँ यानी अवरोध आते हैं उन्हें पहले हटाना चाहिये । वे अवरोध हैं— धन और स्त्री । इनके लिये स्पष्ट कहा है'त्यागुनि माया नार ।' अर्थात् धन और स्त्री के प्रति ममत्व का त्याग करो तभी आत्म-चिंतन हो सकेगा तथा ज्ञान फलीभूत बनेगा ।
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जब तक व्यक्ति धन के पीछे बावला बना फिरता है, उसे पाने के लिये नाना प्रकार के अन्याय, अनीति और कुकर्म करता है तब तक उसका हृदय ज्ञान प्राप्ति की ओर उन्मुख नहीं हो पाता । इसीप्रकार नारी के लिये भी कहा है कि उसके मोह में ग्रसित मानव को सदैव घर-गृहस्थी की तथा पत्नी की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की ही इतनी फिक्र रहती है कि वह धर्मकार्य के लिये समय ही नहीं बचा पाता । काम भोगों में जिस व्यक्ति का मन उलझ जाता है वह पारमार्थिक विषय को नहीं सोच पाता ।
किसी कवि ने भी कहा. है :―
चलू चलू सब कोइ कहै, पहुंचे बिरला कोय | एक कनक और कामिनी, दुर्लभ घाटी होय || एक कनक और कामिनी, ये लम्बी तरवारि । चले थे हरि मिलन को, बिच ही लीने मारि ॥
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