Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 295
________________ २८० आनन्द-प्रवचन भाग-४ इतिहास के पढ़नेवाले जानते है कि हिटलर ने अपने समय में लाखों व्यक्तियों का संहार करके यूरोप की भूमि को रक्तरंजित कर दिया था और अपने आपको विजेता घोषित किया था। सिकंदर ने अनेक देशों को अपनी सैन्यशक्ति से जीतकर चारों ओर अपनी विजय का डंका बजवा दिया था । किन्तु लोग आज हिटलर के नाम पर थूकते हैं और सिकन्दर स्वयं ही मरते समय पश्चाताप करता हुआ इस लोक से रवाना हुआ था । आज उनकी जीत और विजय कोई महत्व नहीं रखती, क्योंकि उससे उन्होंने अपनी आत्मा को क्या लाभ पहुंचाया ? कुछ भी नहीं । 1 1 इसलिए हमारा धर्म और हमारे धर्म-शास्त्र युद्धों में निरपराध प्राणियों को मारकर उन पर जय पाने वालों को विजयी नहीं मानते । वे मानव के हृदय में चलने वाली सत् और असत् प्रवृत्ति की लड़ाई को लड़ाई मानते हैं । गीता में उसे दैवी और और आसुरी प्रवृत्ति के नाम से कहा गया है । तो अन्तर में चलने वाले इस झगड़े में जब सत् प्रवृत्ति जीत जाती है तो उसे जीत कहते हैं । आध्यात्मिक दृष्टि से रावण, कंस, गोशालक, और वर्तमान युग के जिन्ना विजयी नहीं कहला सकते, क्योंकि वे सत् प्रवृत्ति से कहलाये है - भगवान् महावीर, ईसामसीह, गौतम बुद्ध और महात्मा गाँधी जैसे आत्म-विजयी | जिन्होंने अपनी समस्त असत्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर ली थी । हार गए थे । विजयी इस विषय को सरल ढंग से इसप्रकार भी समझा जा सकता है कि असत्य, अन्याय, अनीति, हिंसा, क्रूरता एवं निर्बलों के शोषण में जीत नहीं है । जीत छिपी है सत्य, अहिंसा, नीति, न्याय, दया, परोपकार तथा क्षमा आदि उत्तम भावनाओं में । 'सामवेद' में एक स्थान पर दिया गया है "दान द्वारा कृपणता पर विजय प्राप्त करो, शांति द्वारा क्रोध पर विजय प्राप्त करो । अश्रद्धा को श्रद्धा से जीतो और असत्य को सत्य से । यही सन्मार्ग है, यही स्वर्ग है ।" अभिप्राय यही है कि मानव के अन्तर्मन में ही दैवी और आसुरी युद्ध होता रहता है । क्रोध के सामने क्रोध करना आसुरी युद्ध है और क्रोध का क्षमा से मुकाबला करना दैवी युद्ध कहलाता है । इस प्रकार अशुभ विचारों को शुभ विचारों से जीतना असत् पर सत् का विजय पाना कहलाता है और जो ऐसी विजय प्राप्त कर लेता है वही सच्चा विजयी कहा जा सकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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