Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 308
________________ पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी २६३ एक अद्भुत काव्य उन्होंने और भी लिखा है जिसे पढ़ने का तरीका बड़ा मनोरंजक है । यह इस प्रकार है - पहले 'डब्ल्यू' बाद में 'एम' फिर 'डब्ल्यू' और फिर 'एम' इसी प्रकार पढने पर कविता पढ़ी जा सकती है । यह उनके चातुर्य का प्रमाण है । कवित्व और प्रेरणा पूज्यपाद श्री त्रिलोकऋषि जी म० ने प्रवचनों के द्वारा तो धर्म- जागरण किया ही, साथ ही अपनी कवित्व शक्ति से भी लोगों को पुरुषार्थ करने की प्रबल प्रेरणा दी । उदाहरण स्वरूप उनका एक पद्य आपके सामने रखता हूँउद्यम धर्म सदा सुखदायक, उद्यमथी सब दुख मिटे है । उद्यम ज्ञान ध्यान तप संयम, उद्यम थी कर्म मैल छुटे है । उद्यम थी ऋद्धि सिद्धि मिले सब, उद्यम श्रेष्ठ दरिद्र घटे है | ' तिलोक' कहत है केवल दंसण, उद्यम थी शिव मेल पटे है । महाराज श्री ने मनुष्यों को प्रेरणा देते हुए कहा है - " भव्य पुरुषो ! सदा उद्यम करते रहो । उद्यम से ही तुम्हें इहलौकिक एवं पारलौकिक समस्त सुखों की प्राप्ति होगी और उद्यम से ही सम्पूर्ण दुखों का नाश होगा । क्योंकि उद्यम करने से ही ज्ञान में निरंतर वृद्धि होती है, ध्यान एवं चितन करने से आत्मिकशक्ति बढ़ती है तथा तपस्या करने का अभ्यास होता है । तप करना सरल नहीं है । हमारे प्राचीन ऋषि मुनि महीनों का तप करते थे पर वह भी एकाएक ही नहीं किया जा सकता । उसके लिए बड़े अभ्यास और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है । जो साधक सम्पूर्ण अन्तःकरण से इस ओर प्रवृत्त होता है तथा उद्यम करता है वही घोर तप का आराधन कर सकता है । इसीप्रकार अथक उद्यम करनेवाला व्यक्ति संयम का भी दृढ़ता से पालन करने में समर्थ बनता है । संयम का पालन करना लोहे के चने चबाना है । साधारण और उद्यम रहित व्यक्ति कभी भी संयम - मार्ग पर दृढ़ कदमों से नहीं चल सकता । क्योंकि संयम किसी एक इच्छा को वश में कर लेने से ही नहीं हो जाता । अपितु इसके लिये 'स्थानांग सूत्र' में बताया गया हैं— Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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