Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 346
________________ कषायों को जीतो ! ३३१ और अन्त में अपनी आत्मा के कल्याण के लिए कुछ भी बिना किये तू एक दिन बनजारे के समान ही यहाँ से चल देगा । कवि का कथन - 'तू चलता है बनजारा' यह आत्मा के लिए सर्वथा उपयुक्त है । आत्मा अनंतकाल से भिन्न-भिन्न योनियों में भटक रही है । एक योनि प्राप्त की और अल्प समय के पश्चात् ही उसे छोड़कर यानी पूर्व शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करने चल देती है । जिस प्रकार बनजारे एक स्थान पर पहुंचते हैं और कुछ समय पश्चात् ही अपना डेरा उठाकर अन्य स्थान के लिए प्रयाण कर देते हैं । इसी दृष्टि से आत्मा को बनजारा कहा गया है । बंधुओ, अब हमें यह देखना है कि संसार का पसारा क्यों बढ़ता है ? इसका अन्दाज लगाना कठिन नहीं है कि लोभ, मोह आसक्ति एवं भोगोपभोगों की इच्छाएँ हमारे परिग्रह को बढ़ाती हैं और मन को ललचाकर उनके जाल में मकड़ी के समान फँसा देती हैं । कल मैंने आपको बताया था कि क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय आत्मा के लिये नरकगति का उपार्जन करते हैं तथा इसलोक और परलोक दोनों के लिए उद्वेगकर बनते हुए सच्चे सुख से दूर ले जाते हैं। एक गाथा के द्वारा कल यह भी बताया था कि क्रोधं प्रीति का नाश करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मित्रता को मिटानेवाली है कुछ नष्ट कर देता है । अतः आज शास्त्र की एक दूसरी बताता हूं कि क्रोध, मान, माया एवं लोभ को किस प्रकार जीता जा सकता है | गाथा दशवैकालिक सूत्र की है और इसमें भगवान ने कहा है और लोभ तो सभी गाथा के द्वारा यह उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । मायं चज्जवभावेणं, लोभं संतोषओ जिणे ॥ क्रोध को शांति से, मान को कोमलता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष वृत्ति से जीता जा सकता है । वस्तुतः चारों कषाय आत्मा के लिए हानिकारक है । पर इन चारों में क्रोध का स्थान प्रमुख है । यह वह भयंकर अग्नि है जो कि आत्मा में प्रज्वलित होने पर उसे कहीं का नहीं रखती । कहा भी है उत्पद्यमानः प्रथमं वहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥ अर्थात् क्रोध रूपी आग सर्वप्रथम अपने आश्रयस्थान स्वयं को ही जलाती है । तत्पश्चात् दूसरे को तो जलावे या नहीं भी जलावे । इसलिए आत्मार्थी साधक को सर्वप्रथम क्रोध को जीतने का प्रयत्न करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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