Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 355
________________ ३४० आनन्द-प्रवचन भाग-४ नहीं सकता। उसी प्रकार माया-रूपी शल्य के विद्यमान होने पर भी वह साधना के मार्ग पर नहीं चल सकता। माया जीवन को नष्ट करने वाली पिशाचिनी के समान है जो आत्मा की समस्त विशेषताओं को ग्रस लेती है और उसे पतन की ओर ले जाकर दुर्गति के अथाह खड्डे में गिराती है। ___ इसलिये मनुष्य को जितनी जल्दी संभव हो सके स्वयं को उसके चंगुल से छुड़ाकर आत्म-कल्याण के पथ पर बढ़ना चाहिये। ___ माया को मार्जव अर्थात् सरलता से जीता जा सकता है। जिस व्यक्ति का हृदय सरल और शुद्ध होता है वह कभी किसी का अनिष्ट नहीं चाहता और जब किसी के अनिष्ट की इच्छा हृदय में नहीं होती तो कपट करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। सारांश यह है कि मोक्षाभिलाषी व्यक्ति को अपने हृदय से कपट-भावना को निकाल देना चाहिये, तभी उसका भविष्य उज्वल बन सकता है। अन्यथा आत्मा को दुःख के महासागर में अनन्तकाल तक डूबना-उतराना पड़ेगा। , चौथा कषाय लोभ है। लोभ के विषय में आप सब भली-भांति मानते हैं कि यह कषाय सभी कषायों से निकृष्ट है। शास्त्र की गाथा में बताया भी गया है कि क्रोध स्नेह को, मान विनय को और माया मित्रता को नष्ट करती है । • अर्थात् ये तीनों कषाय एक-एक गुण का नाश करते हैं। किन्तु लोभ तो सभी अच्छाइयों को नष्ट कर देता है। लोभ के वश में पड़ा हुआ व्यक्ति शनैः-शनैः सभी दुर्गुणों को अपना लेता है तथा प्रत्येक कुकर्म करने पर उतारू हो जाता है। भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में कहा है उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो, निस्तीर्णः सरितांपतिः नृपतयो यत्नेन संतोषिताः । मंत्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः, प्राप्तः काणवराटकोऽपि न मया तृष्णेऽधुना मुंच माम् ॥ कहते हैं-'धन प्राप्त कर लेने की आशा में मैंने पृथ्वी को तल तक खोद डाला किन्तु कुछ भी हाथ न लगा। रसायन सिद्ध करने तथा सुवर्ण एवं रजत का निर्माण करने के लिये मैंने अनेक प्रकार की धातुएं फूंक दी, समुद्र को रत्नों की खान समझकर उससे मोती निकालने के लिये मैं समुद्र की थाह ले आया, राजाओं की चाकरी से धन प्राप्त होता है यह विचारकर उन्हें भी संतुष्ट करने की पूरी कोशिशें की फिर भी धन नहीं मिल सका।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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