Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 357
________________ ३४२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ "मंत्रिवर ! मेरी प्रजा के द्वारा दिये गए इन उपहारों को तुम साधु-जनों में बांट दो।" मंत्री राजा की आज्ञा स्वीकार करके नगर की ओर चल दिया। किन्तु जब वह शाम को घर लौटा तो सारे के सारे उपहार ज्यों के त्यों मजदूरों के द्वारा पुनः ले आए गए। राजा ने यह देखा तो अत्यन्त चकित होकर पूछा-"मंत्री जी, यह क्या आपने एक भी वस्तु किसी साधु को प्रदान नहीं की ऐसा क्यों ?" _____ मंत्री ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया--"महाराज ! मैं क्या करता ? मैं दिन भर सारे नगर में धूमा । पर देखा कि जो सच्चे साधु हैं वे तो इतने संतोषी हैं कि इनमें से एक भी वस्तु लेना नहीं चाहते। कहते हैं-- 'हमें शरीर को चलाने के लिये दो कौर अन्न मिल जाता है, वही हमारे लिये काफी है । इन परिग्रह की चीजों को लेकर क्या करें ? और जो इन वस्तुओं को लेना चाहते हैं वे मुझे साधु नहीं जान पड़ते । इसीलिये आपकी आज्ञा का पालन मैं नहीं कर सका और इन समस्त चीजों को लौटा कर लाना पड़ा।" ___बंधुओ, कहने का अभिप्राय यही है कि संतोषी व्यक्ति ही साधु कहला सकता है और ऐसा साधु ही साधना-पथ पर बढ़कर अपनी आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में ला सकता है। एक बात और यहाँ ध्यान में रखने की है कि त्यागी वही कहलाता है जो स्वेच्छा से प्राप्त परिग्रह को त्यागता है तथा स्वेच्छा से ही भोगोपभोगों से मुंह मोड़ लेता है । एक निर्धन व्यक्ति जिसके पास रखी कोड़ी भी नहीं है पर धन प्राप्त करने की लालसा रखता है वह कुछ भी परिग्रह न होने पर भी साधु नहीं कहला सकता, और एक रोगी व्यक्ति जो न भोजन को पचा सकता है और न भोगों को भोग सकता है पर उन्हें भोगने की इच्छा रखता है वह भोगों को भोग न सकने के कारण उनका त्यागी नहीं कहलाता है। श्री भर्तृहरि ने एक श्लोक में कहा है क्षातं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः, सोढा दु:सहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहनिशं नियमितप्राणन शंभोः पदं, तत्तत्कर्म कृतं यदैव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वञ्चितम् ॥ कितनी यथार्थ और शिक्षाप्रद चेतावनी है कि-क्षमा तो हमने किसी को किया किन्तु धर्म के खयाल से नहीं किया। घर के सुखों का त्याग किया पर संतोष से उन्हें नहीं त्यागा। हमने शीत, ग्रीष्म आदि प्राकृतिक परिषहों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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