Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 345
________________ २८ कषायों को जीतो ! धर्मप्रेमी बंधुओ माताओ एवं बहनो ! आज मुझे एक भजन की दो लाइनें याद आ रही हैंजिया मतकर बहुत पसारा, तू चलता है बनजारा। ये लाइनें बहुत सरल और स्पष्ट लिखी गई हैं। न इनमें शब्दों का आडम्बर है और न भाषा की जटिलता। किन्तु इनका भाव अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। कवि ने आत्मा को बनजारे की उपमा देकर प्रतिबोध दिया है- "अरे चेतन ! तू चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए नाना प्रकार के असह्य दुख सहता हुआ इस मनुष्ययोनि में आ पाया है। अतः अब अधिक 'पसारा' मत कर।' अधिक पसारे से तात्पर्य है अपने मन को सांसारिक पदार्थों में अधिक से अधिक आसक्त रखना तथा मोह जाल को बढ़ाना । साधारण शब्दों में हम पसारे से अपने सामने रही हुई वस्तुओं की अधिकता से तात्पर्य लेते हैं । अर्थात् किसी भी काम को करते समय बिना जरूरत की बिखरी हुई अगर अधिक संख्या में जो चीज पड़ी रहती हैं, उनके लिए कहते हैं —"पसारा समेटो !" यहाँ भी पसारा शब्द का यही अभिप्राय है । जीवन में जितना भौतिक पदार्थों का संग्रह करेंगे वह बाह्य पसारे की गिनती में आएगा और उनके प्रति जो आसक्ति और ममत्व होगा वह आंतरिक पसारे में गिना जाएगा। बाह्य पसारा ही आंतरिक पसारे को जन्म देता है। तो कवि ने प्राणी से यही कहा कि-'भोले जीव' बाहर का परिग्रह अधिक मत बढ़ा क्योंकि यह जितना बढ़ता जाएगा, तेरी आत्मा इसमें उतनी ही लिप्स होती जाएगी और उसके भोग तथा सुरक्षा में तेरा जीवन समाप्त हो जाएगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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