Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 351
________________ ३३६ आनन्द - प्रवचन भाग-४ इस प्रकार के विचार आते ही सेठानी ने अपने क्रोध का परित्याग कर दिया और पूर्ण समभाव व शांति से जीवन व्यतीत करने लगी । इस प्रकार सुशील और चतुर बहू ने शांति के अत्यन्त झगड़ालू सास को भी सुधार लिया और उसे उदाहरण देने का अभिप्राय यही है कि अगर मानव अपने जीवन को सर्वप्रथम क्रोध को जीतना चाहिये । महापथ पर एक कदम भी नहीं रख श्रेष्ठ बनाना चाहता है तो उसे क्रोध को जीते बिना वह साधना के सकता । द्वारा अपनी कर्कशा और सन्मार्ग पर ले आई। कषाय - चतुष्क में अब दूसरा नंबर है मान का । अभिमान भी जीवन के लिए घोर अनिष्टकारी है । यह साधक के सम्पूर्ण जीवन की साधना संयम, तप एवं अन्य उत्तम गुणों को नष्ट कर देता हैं । बाहुबलि को केवल अभिमान के कारण ही केवलज्ञान की प्राप्ति होने से रुकी रही । जब तक उनके हृदय से मान नहीं गया केवलज्ञान उन पर मंडराता रहकर भी प्राप्त नहीं हुआ और जिस क्षण मान उनकी आत्मा से निकला, उसी क्षण वे उस दुर्लभ ज्ञान के धनी बन गये । अभिमान भी आत्मिक गुणों का घोर शत्रु है और नाना बुराइयों को जन्म देने वाला है । रावण, कंस और दुर्योधन आदि को विनाश की ओर ले जाने वाला तथा कुल सहित नष्ट करने वाला अभिमान ही था । इसलिये साधक को साधना पथ पर बढ़ने से पहले ही मान का नाश करके आत्मा में विनय की स्थापना करनी चाहिये । जब तक हृदय में अभिमान जागृत रहेगा, विनय गुण का आविर्भाव नहीं हो सकेगा और विनय के अभाव में ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं होगी । और जब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी, मनुष्य धर्म, अधर्म, के अंतर को भी जान नहीं सकेगा । अभिमान हृदय में क्यों रहता है, इस विषय में संस्कृत के एक सुभाषित में शेष नाग और बिच्छू का उदाहरण देकर बताया गया हैं कि अपूर्णता हृदय में मल को जन्म देती है । श्लोक इस प्रकार है - Jain Education International विषभार सहस्रेण वासुकि नव गविता | वृश्चिको स्तोकमात्रेण, सोध्वं वहति कंटकम् । वैष्णव सम्प्रदाय में माना जाता है कि पृथ्वी का भार शेषनाग अपने विशाल फन पर उठाये हुए है । वासुकी यानी शेषनाग । तो शेषनाग, जिसके पास हजारों तोला जहर है और जिसने सम्पूर्ण पृथ्वी का भार अनन्तकाल से वहन कर रखा है उसके हृदय में अपनी शक्ति या महत्ता का तनिक भी अभि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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