Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

Previous | Next

Page 329
________________ ३१४ आनन्द-प्रवंचनं भाग-४ पहले इन्द्र शक्रेन्द्र और दूसरे इन्द्र ईशानेन्द्र के देवलोकों की सीमाएँ पासपास जुड़ी हुई हैं। उनमें प्रसंगवश कभी-कभी विवाद हो जाता है। तो भगवती सूत्र में दिया गया है कि उन इन्द्रों के पारस्परिक झगड़ों को कौन मिटाता है ? ऐसा प्रश्न भगवान् से गौतम स्वामी ने किया। ___ भगवान् का उत्तर है—“गौतम ! जब पहले दोनों इन्द्रों में विवाद होता है ऊपर तीसरे देवलोक के इन्द्र आकर उनके विवाद को मिटाते हैं।" गौतम स्वामी पुनः प्रश्न पूछते हैं- "भगवन् ! पहले दोनों इन्द्र भी साधारण देवता नहीं हैं, इन्द्र हैं। उन्हें समझाने की शक्ति तीसरे देवलोक के इन्द्र में कैसे होती है ?" भगवान् पुनः उत्तर देते हैं-"तीसरे देवलोक के इन्द्र सनत्कुमार हैं । उन्होंने अपने पूर्वजन्म में साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका, इस प्रकार चारों तीर्थों की बहुत सेवा की थी, इसीलिए उन्हें इतना ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ।" उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है वैयावच्चेणं तित्थयरनामगोयं कम्मं निबंधेड। आचार्यादि की वैयावृत्त्य करने से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्म का उपार्जन करता है। इस प्रकार जिस व्यक्ति की सेवा-भावना जितनी उत्कृष्ट होगी वह उतना ही ऊंचा उठेगा। आपने मुनि नन्दीषेण के विषय में सुना होगा। वे इतने सेवा-भावी थे कि देवलोक में शक्रेन्द्र जो कि सम्यकदृष्टि है उन्होंने समस्त देवताओं के सामने नन्दीषेण मुनि की प्रशंसा की। कहा-"नन्दीषणजी के समान सेवा करनेवाला और कोई नहीं है।" ___शक्रेन्द्र की इस बात को सम्यक्दृष्टि देवों ने सत्य मानी और स्वयं भी मुनि की प्रशंसा करने लगे। किन्तु एक मिथ्यात्वी देव ने इस बात को नहीं माना। उलटे उसे बुरा लगा कि इन्द्र महाराज देवताओं की तारीफ़ न करके एक साधारण मानव की प्रशंसा करते हैं। उस मिथ्यात्वी देव ने निश्चय किया कि मैं नन्दीषेण मुनि की परीक्षा लूंगा और इन्द्र महाराज के कथन को गलत साबित करूंगा। अनेक व्यक्तियों का ऐसा ही स्वभाव होता है । वे स्वयं तो कुछ सराहनीय कार्य करते नहीं, पर औरों के कामों में मीन-मेख निकालने के लिये और उनकी परीक्षा लेने के लिये तैयार रहते हैं। हमारे यहाँ भी अनेक प्रकार के व्यक्ति आते हैं। कुछ तो उनमें से ऐसे होते हैं जो आन्तरिक श्रद्धा और स्वयं अपनी रुचि से जिन-वचनों का श्रवण करने के इच्छुक होते हैं, कुछ ऐसे भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360