Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 336
________________ जीवन श्रेष्ठ कैसे बने ? ३२१ चिंतन करना चाहिये। कि इन कषायों से आत्मा की कितनी हानि होती है और किस प्रकार ये आत्मिक गुणों को नष्ट करते हैं। दशवकालिक सूत्र में बहुत स्पष्ट बताया गया है कि ये चारों कषाय क्याक्या नुकसान करते हैं ? इसके आठवें अध्याय में यह गाथा है कोहो पोइं पणासेइ, भाणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो॥ - क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाशक है, माया मित्रता की जड़ काटती है और लोभ तो समस्त सद्गुणों का ही विनाश कर देता है। वस्तुतः ये चारों कषाय सद्गुणों का नाश करके आत्मा को पतन की ओर ले जाते हैं । कषायों में पहला स्थान क्रोध को दिया गया है। यह आत्मा का प्रबल दुश्मन है । इसके रहते हुए कोई भी उत्तम गुण आत्मा के पास नहीं फटक पाता। जिस प्रकार काले रंग के वस्त्र पर दूसरा कोई भी रंग नहीं चढ़ता, इसीप्रकार आत्मा पर क्रोध के काले रंग के चढ़ जाने के पश्चात् करुणा, दया, स्नेह, सेवा या क्षमा आदि का कोई भी श्रेष्ठ रंग नहीं चढ़ा करता। तभी संसार के दार्शनिकों और चिन्तकों से जब किसी ने प्रश्न किया"विसं कि ?" तो उन्होंने उत्तर दिया-"कोहो ।" अर्थात् क्रोध । वास्तव में ही क्रोध एक ऐसा भयानक विष है जो मनुष्य को मदिरापान किये हुए व्यक्ति की अपेक्षा भी अधिक खतरनाक बना देता है। यह एक-एक दो-दो पीढ़ियों तक के स्नेह सम्बन्ध को तोड़ देता है। तथा जन्म-जन्मान्तर तक वैर-भाव जीवों में चलता रहता है। __ इसी प्रकार मान का भी हाल है । गाथा में दिया गया है—'माणो विणय नासणो।' यानी मान विनय को नष्ट करने वाला है। यथार्थ भी है कि जहाँ मान अथवा अहंकार होगा, वहाँ विनय कैसे रह सकेगा । मान का स्थान गर्दन में होता है । जहाँ मान रहेगा गर्दन अकड़ी रहेगी। जब गर्दन झुकेगी ही नहीं तो मस्तक नवेगा कैसे ? और मस्तक नहीं झुकेगा तब विनय किसी का किस प्रकार किया जा सकेगा। माता-पिता, गुरु आदि बड़ों को मस्तक झुकाकर ही विनय प्रदर्शित किया जाता है। पर जब मस्तक झुके ही नहीं तो विनय का चिह्न कहाँ रहेगा? तारीफ़ की बात तो यह है कि अभिमानी व्यक्ति अगर कुछ समझदार है तो वह बड़ों का अनादर अथवा अवहेलना करने पर उसका प्रायश्चित ज़रूर कर लेता है, किन्तु मान का त्यान नहीं करता । वह कहता भी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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