Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 327
________________ ३१२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ _____ तो मैं आपसे कह रहा था कि तीर्थंकरों की आत्मा भी एक समय हमारे जैसी ही थी किन्तु साधना के फल-स्वरूप उन्होंने तीर्थंकर गोत्र की प्राप्ति की। 'ज्ञाता सूत्र' के आठवें अध्याय में वर्णन आता है कि बीस कारणों से तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन होता है। उनमें साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका की सेवा करना भी है जिन्होंने ऐसा किया है वे ही अपनी आत्मा का कल्याण कर सके हैं। हमारे पूर्वज कहते आए है : सतन की सेवा किया, प्रभु रीझत है आप । ज्यांका बाल खिलाइये, ताका रीझत बाप ॥ कहते हैं कि सन्तों की सेवा करने से भगवान प्रसन्न होते हैं, ठीक उसी • प्रकार, जिस प्रकार बच्चों को खिलाने से उनके माता-पिता प्रसन्न होते हैं । यहाँ आप मन में विचार करेंगे कि भगवान के लिये तो संसार में सभी प्राणी समान हैं । उनका सभी पर सम-भाव है फिर सन्तों के लिए ही यह बात क्यों ? आपका सोचना गलत नहीं है । यह विचार मन में उठना स्वाभाविक है । और वास्तव में ही प्राणी मात्र की सेवा से भगवान प्रसन्न होते हैं । किन्तु यह पद्य सहज भाव से कहा जाता है और इसका आशय मैं संक्षेप में आपके सामने रखता हूँ। . इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति पहले किसी का पुत्र बनता है और उसके बाद स्वयं पिता बन जाता है । पिता के एक, दो चार या अधिक भी पुत्र होते हैं। सभी के लिये उसके हृदय में अथाह ममत्व होता है और अपने पुत्रों के दुख से वह दुखी तथा उनके सुख से स्वयं भी सुख का अनुभव करता है। किन्तु स्वाभाविक है कि सभी पुत्रों में समानता नहीं पाई जाती । प्रायः देखा जाता है कि एक ही पिता के पुत्र होने पर भी कोई तो बाप का आज्ञाकारी, सेवा भावी एवं विनयवान होता है और कोई पुत्र अनुशासनहीन, उदंड तथा क्रूर प्रकृति का निकल जाता है । यद्यपि पिता का आन्तरिक ममत्व सुपुत्र और कुपुत्र दोंनों पर समान होता है और दोनों में से किसी को भी कष्ट में नहीं देख सकता किन्तु विनयी, आज्ञाकारी और सेवाभावी पुत्र अपनी सेवा परायणता के कारण पिता के अधिक नज़दीक रहता है और अधिक समय उनकी सुश्रूषा में व्यतीत करने के कारण पिता के गद्गद् हृदय का मूक आशीर्वाद प्राप्त करके उसका शुम फल पाता है। इसी प्रकार भगवान के लिये संसार के सभी प्राणी समान हैं सब के लिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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