Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 330
________________ शुभ फलप्रदायिनी सेवा ३१५ होते हैं जो केवल लोक-लज्जा के कारण आते हैं कि लोग कहेंगे-"महाराज का चातुर्मास कराया पर प्रवचन तो सुनते ही नहीं।" ___ कुछ उनमें से ऐसे भी होते हैं जो अपने स्वार्थ के कारण आते हैं कि प्रवचन सुनेंगे यानी धर्म के शब्द कान में पड़ेंगे तो धन, वैभव, परिवार सभी की वृद्धि होगी और सांसारिक सुख प्राप्त होगा। कुछ सटोरिये भी यहां आते हैं, जो सन्तों के मुंह से निकले किसी अङ्क पर ही सट्टा लगा दिया करते हैं। पर कुछ व्यक्ति ऐसे भी आते हैं जो केवल हमारे रहन-सहन व्यवहार-क्रिया आदि में कमियाँ देखते हैं। वे छिद्रान्वेषण करने की भावना को लेकर ही यहाँ तशरीफ़ लाते हैं। ' अब उनसे पूछा जाय कि साधु में भले ही कुछ कमी होगी, ढीलापन होगा किन्तु क्या वे तुमसे अनेक गुने त्यागी नहीं हैं ? साधु की परीक्षा करने चले हो पर उन में जितने भी गुण हैं उनमें से एक-दो भी तो अपनाकर देखो ? अधिक नहीं तो साधु के लिये जो साधारण बातें हैं उन्हें ही कुछ दिन अपना लो। जैसे सर्दी या गर्मी में नंगे पैर ही चलना, रात को पानी नहीं पीना, कड़ाके की सर्दी में भी गद्दे-रजाई में नहीं सोना । यह तो हमारे लिये मामूली बातें ही हैं संयम और साधना तो दूर की चीजें हैं । तो ये छोटी बातें भी क्या छिद्रान्वेषण करने वाले कुछ दिन के लिये अपना सकते हैं ? नहीं, वह तो दो दिन के लिये भी सम्भव नहीं है। सम्भव केवल साधु के दोषों को ढूंढ़ना और उन्हें लेकर निंदा करना ही है । वे परीक्षा ले सकते हैं । परीक्षा दे नहीं सकते। ऐसा ही वह मिथ्यात्वी देव था, जिसने नन्दीषेण मुनि की परीक्षा लेने का निश्चय किया और उन्हें परीक्षा में फेल करके शकेन्द्र की बात को असत्य करना चाहा। देव ने मुनि का वेश बनाया और मानवलोक में आ पहुँचे । नन्दीषेण से कहा- "मुझे अमुक गाँव जाना है अतः पहुँचा दो।" ___नन्दीषेण जी ने सहर्ष इस बात को स्वीकार किया और उन्हें सहारा देकर ले चलना चाहा । यह देखते ही बनावटी मुनि क्रोध से उबल कर बोले "तुम्हें दिखाई नहीं देता ? मैं चल सकता है क्या ?" "भगवन् ! मुझसे गलती हो गई आप मेरे कंधे पर बैठ जाइये ।" मुनि के क्रोध पर तनिक भी ध्यान न देते हुए नन्दीषेण जी ने अत्यन्त विनम्रता से क्षमा मांगते हुए कहा। तत्पश्चात् रुग्ण मुनि को कंधे पर बैठा कर नन्दीषेण जी रवाना हो गए। मुनिदेव था अतः उसने अपना वजन काफ़ी कर लिया था किन्तु नन्दीषेण जी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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