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कर्म लुटेरे !
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... अगले दिन प्रातःकाल दरबार में बादशाह ने संन्यासी को बुलवाया और पूछा-"रात को तुमने अपने-आपको बादशाह और मुझे गुलाम क्यों कहा था ?"
"इसलिए कि मैंने अपनी इच्छाओं पर, वासनाओं पर, लोभ, मोह और क्रोध सभी पर विजय प्राप्त कर करली है। उदाहरण के लिए देखो तुमने मुझे कैद करवा दिया तब भी मेरे मन में तुम्हारे प्रति तनिक भी रोष का भाव नहीं आता। अतः मैं अपने मन को जीत लेने वाला सम्राट् हूँ। किन्तु तुमने जरा-सा गुलाम कहते ही क्रोध से भडक कर मुझे कैद करवा दिया। फिर बताओ, क्या तुम वासनाओं के या कषायों के गुलाम नहीं हो ?"
- बादशाह यह सुनकर अपनी भूल को समझ गया तथा अत्यन्त लज्जित हुआ। उसी क्षण उसने संन्यासी को मुक्त कर दिया तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।
कहने का अभिप्राय यही है कि जो समस्त सांसारिक पदार्थों पर से अग्नी आसक्ति हटा लेते हैं और अपने सगे-संबन्धियों पर अथवा दुश्मनों पर भी समभाव रखते हैं वे ही साधु-पुरुष कहलाते हैं और ऐसे महापुरुष ही निस्वार्थ भाव से जिन वचनों को जनता के समक्ष रख सकते हैं तथा अज्ञानी व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर कल्याण के मार्ग पर लगा सकते हैं। ___ अब हमारी कविता में जो कि आपके सामने चल रही हैं, उसमें आगे कहा है
मेरा अनन्त ज्ञान ठग लीन्हा, मुझे पुद्गल ने वश कीन्हा ।
कछु नहीं आपसे छाना, कर्मों से पड़ा है पाना ॥ जिज्ञासु भक्त कह रहा है-मुझे पुद्गलों ने ठगकर अनंतज्ञान छीन लिया है। शास्त्र कहते हैं कि आत्मा के पास अनंत ज्ञान है लेकिन अनंतज्ञान की सत्ता की भी पुदगलों ने परवाह नहीं की तथा मेरे अनंतज्ञान पर अज्ञान का आवरण डाल दिया। परिणाम स्वरूप मैं सम्यक् ज्ञान से वंचित रहा और अज्ञान के कारण कर्म-बंधन करता रहा ।
हे प्रभो ! आप तो सर्वज्ञ हैं अतः जानते ही हैं कि मैं किस प्रकार इन भयानक कर्मों के वशीभूत होकर दुःख पा रहा हूँ। अपनी असावधानी और भयंकर भूल पर मुझे अब बहुत ही पश्चाताप हो रहा है और इसीलिए मैंने
लिया धर्म सुभट का शरणा, मिट जाए मेरा सब डरना ।
मुझे ऐसी राह बताना जी, कर्मों से पड़ा है पाना ॥ क्या कहा है कवि ने ? यही कि मैं अब तक असावधान रहा अतः पुद्गलों ने मुझे ठगकर मेरा अनंतज्ञान लूट लिया। किन्तु अब मैंने धर्म-रूपी
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