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कर्म लुटेरे !
३०३ करुणा, संतोष, शांति, धैर्य तथा क्षमा आदि के रूप में था सब नष्ट हो गया है और मोक्ष के मार्ग से मैं बहुत दूर हो चुका हूँ। मैंने पाप करते समय नहीं जाना था कि ये कर्म मुझ पर इस प्रकार जुल्म करेंगे । यह तो अब मालूम पड़ रहा है, जबकि इन्हें भोगने का समय आया है ।
आगे कहा गया है___ अमृत कह जहर पिलाया, हिंसा में धर्म बताया।
फिर किया बहुत हैराना, कर्मों से पड़ा है पाना । अर्थात- "दुर्भाग्य से मुझे सद्गुरु की प्राप्ति नहीं हुई और मैं जिनके संपर्क में आया, उन मिथ्याध्वी और पाखंडियों ने मुझे गुमराह कर दिया। हिंसा पूर्ण कार्यों को धर्म क्रियाएं बताकर अमृत के स्थान पर विष-पान कराया
और उसके घातक प्रभाव से मेरे सद्गुणों का नाश तो हुआ ही, कर्मों के चंगुल में मैं फंस गया जिन्होंने अब तक नाना-प्रकार से मुझे हैरान किया और करते जा रहे हैं।"
वस्तुतः मिथ्यात्व का रोग पीलिये रोग के समान होता है जिसमें प्रत्येक वस्तु पीली दिखाई देती है। मिथ्यात्व रोग से ग्रस्त व्यक्ति भी कभी शुभकर्मों में रुचि नहीं लेता उसे वे क्रियाएँ दोष पूर्ण या व्यर्थ मालूम होती हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं
तुलसी पूर्वला पाप से, प्रभु चर्चा न सुहाय ।
जैसे ज्वर के जोर से, भोजन की रुचि जाय ।। कहा है कि जिस व्यक्ति के पूर्वकृत पापों का उदय होता है, उसे भगवत् वाणी अथवा धर्मोपदेश सुनने की भी इच्छा नहीं होती । भगवान की भक्ति व साधना आदि उसे ढोंग और व्यर्थ के काम मालूम देते हैं। उसकी दृष्टि भूत और भविष्य से हटकर केवल वर्तमान में ही सीमित रहती है। वर्तमान के सुख-भोग ही उसे जीवन का लक्ष्य दिखाई देते हैं। साधना, प्रार्थना और भक्ति से प्राप्त होने वाले आनन्द की वह कल्पना ही नहीं कर सकता और इसलिये इन क्रियाओं को करता भी नहीं । अमूल्य धन
एकबार एक महात्मा किसी निर्जन वन में एक शांत स्थान पर बैठे हुए ध्यान कर रहे थे कि उधर से एक व्यक्ति घोड़े पर से गुजरा। महात्मा जी को देखकर उनका उपहास करने के लिए वह घोड़े से उतर गया और उनके समीप आकर बोला--"साधुजी महाराज ! क्यों अपना समय बर्बाद कर रहे हो ? तुम बूढ़े तो नहीं दिखाई देते, शक्तिशाली हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति हो । क्यों नहीं इस समय में कुछ कमाई करते हो, दो पैसे मिलें और भिक्षा भी न माँगनी पड़े।
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