Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 301
________________ २८६ आनन्द-प्रवचन भाग-४ 'प्रत्युक्त हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थ किमेव ।' सज्जनों की रीति ही यह है कि जब कोई उनसे कुछ मांगता है तो वे मुंह से कुछ न कहकर काम पूरा करके ही उत्तर दे डालते हैं। तो सत्यवादिता के लिये राजा हरिश्चन्द्र, वचन-पालन के लिये मर्यादा पुरुषोत्तम राम और दान देने के लिए जिस प्रकार कर्ण को संसार स्मरण करता है, उसी प्रकार शील का अखंड पालन करने वाले सेठ सुदर्शन का भी ज्वलंत उदाहरण सदा जगत के सामने रहेगा । अपने शीलव्रत का पालन करने के लिए उन्होंने सूली पर चढ़ जाना कबूल कर लिया तथा मरणांतक कष्ट को भी गले लगाने के लिये तैयार हो गए पर अपने विचारों से नहीं डिगे। परिणामस्वरूप सूली भी उनके लिए सिंहासन बन गई । ___ वास्तव में ही शीलवान पुरुष इस बात को भली भांति समझ लेते हैं कि शीलप्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति । न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बंधुभिः ॥ - महाभारत शील जीवन का अनमोल रत्न है। उसे जिस मनुष्य ने खो दिया उसका जीवन ही व्यर्थ है। ऐसा व्यक्ति चाहे जितना धंनी अथवा भरे-पूरे घर का हो, उसका कोई मूल्य नहीं रहता। तो आत्म बंधुओं ! महापुरुषों के ये कुछ उदाहरण मैंने इसलिये दिये हैं कि अगर व्यक्ति श्रुति, स्मृति अथवा अन्य शास्त्रों के गढ़ अर्थों की तह तक न पहुंच पाये और ऊपरी बातों की भिन्नता के कारण वह उलझन में पड़ जाए कि किस शास्त्र की बात माने और किस की नहीं, तो जैसा कि प्रारम्भ के श्लोक में कहा गया है "महाजनो येन गतः स पन्थाः ।" व्यक्ति को उस मार्ग पर चलना चाहिये जिस पर महापुरुष चले हैं। अर्थात् महापुरुषों ने जिन गुणों को अपनाकर जगत में तो अमर ख्याति प्राप्त को ही है, अपनी आत्मा का भी कल्याण कर लिया, उन गुणों को अपनाना चाहिये । उसे समझना चाहिये कि धर्म सद्गुणों से भिन्न नहीं है। जैसा कि अभी बताया गया है-सत्य, वचन-पालन, दान तथा शीलादि गुण धर्म के ही विविध अंग हैं और जो व्यक्ति इन्हें अपना लेता है, उसने धर्म को अपनाया है इसमें रंच-मात्र भी सन्देह नहीं है। __ आवश्यकता है मन को दृढ़ रखने की। मन अगर डाँवाडोल रहा और तनिक से संकट या भय से घबरा गया तो व्यक्ति कभी भी अपने किसी नियम या व्रत की रक्षा नहीं कर सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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