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काव्य साधना
श्री त्रिलोकऋषि जी महाराज ने सत्रह शास्त्र कंठस्थ किये थे । शास्त्रस्वाध्याय में उन्हें अपूर्व रुचि थी और वे प्रतिदिन करीब तीन घंटे तक स्वाध्याय-रत रहा करते थे । स्वाध्याय के बिना ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय नहीं होता जैसा कि 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा है'सज्झाएणं णाणावर णिज्जं कम्मं खवेई ।'
आनन्द-प्रवचन भाग – ४
स्वाध्याय से ज्ञान को आच्छादन करने वाले कर्मों का क्षय होता है ।
तो स्वाध्याय में प्रबल रुचि होने के कारण ही उनकी ज्ञानवृत्ति तीव्रता से बढ़ी और उनके हृदय में कवित्वशक्ति का भी आविर्भाव हुआ । परन्तु जब उन्होंने कविताएँ लिखनी चाहीं तो बुजुर्गों ने कहा - " अपने सम्प्रदाय में कविताएँ लिखना ठीक नहीं माना जाता । क्योंकि कविताओं में अतिशयोक्ति बहुत होती है, जिससे झूठ का दोष लगता है ।"
किन्तु त्रिलोकॠषि जी म० ने इस निषेध से हिम्मत नहीं हारी और विनयपूर्वक उत्तर दिया – “मुझे पंखुड़ी का फूल बनाकर अतिशयोक्ति नहीं करनी है तथा शास्त्रविरोधी कविताएँ भी नहीं लिखनी हैं। पर जो वास्तविक स्थिति है, उसे कहने में जिस प्रकार हर्ज नहीं होता उसीप्रकार कविताओं में लिखने से क्या हर्ज है ?"
इसप्रकार बुजुर्ग संतों की अनिच्छा के कविता कला के द्वारा जैनधर्म का प्रसार और गूढ़भावों को भी कविताओं में गूंथ देने है और काव्य रुचिकर हो जाता है ।
बावजूद भी उन्होंने चाहा कि किया जाय । वह इसलिए गंभीर से उनमें मनोरंजकता आ जाती
तो अपनी तीव्र भावना के कारण आपने कवित्व - कला का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया। चौपाई, दोहरे, आनंद श्रावक का तोड़ा, मेतारज मुनि, अंगद मुनि एवं भृगद्रोही का चोढाला बनाया । एक वीररस प्रधान भगवान महावीर का चौरा लिखा । नवरसों से वीररस भी एक है । इसके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं को अपनी वीरता से परास्त करना, यह भाव प्रदर्शित किया गया है ।
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अद्भुत कला-कृतियाँ
महाराज श्री का लिखना भी बड़ा आश्चर्यजनक था । वे इतने सूक्ष्म अक्षर लिख सकते थे कि एक ही पन्ने में आपने सम्पूर्ण दशवैकालिक सूत्र, भगवान महावीर की स्तुतिका एवं दो सौ छप्पन श्लोक लिखे हैं । एक पन्ने में करीब सात सौ पचास गाथाएँ लिखी हैं शुद्ध हैं । जिनकी आंखों की रोशनी ठीक है सकते हैं ।
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अक्षर बिलकुल साफ-सुथरे और वे आज भी उन्हें भली-भांति पढ़
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