Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 293
________________ २७८ आनन्द-प्रवचन भाग--४ आगे आया तो दृष्टि बिलकुल ही सीमित हो जाती है। किन्तु आध्यात्मशास्त्ररूपी नेत्र के द्वारा आप त्रिलोक की स्थिति को जान सकते हैं, सम्पूर्ण गतियों की जानकारी कर सकते हैं तथा पुण्य, पाप, राग, द्वेष, मोह आदि विषय-विकारों के कुफलों को नष्ट करने के उपायों को पहचान सकते हैं। 'अध्यात्मसार' ग्रन्थ में कहा भी है "अध्यात्मशास्त्रमुत्तालमोहजालवनानलः । आध्यात्म शास्त्र ही भयंकर मोह-जाल रूपी वन को जलाने के लिए अग्नि के समान हैं। इसका कारण यही है कि वे संसार-भ्रमण कराने वाले पाप की तथा संसार-मुक्त कराने वाले पुण्य की सही पहचान कराते हैं वे बताते हैं _ 'पातयति इति पापम् ।' अर्थात् जो आत्मा को अधोगति में गिराता है वह पाप है तथा _ "पवित्रम् करोति आत्मानम् इति पुण्यम् ।" हमारी आत्मा, जो काम, क्रोध, मोह एवं लोभ आदि विकारों से मलीन हो गई है उसे शुद्ध और पवित्र बनाने वाला पुण्य है। तो आत्मा को गिराने वाला पाप है और ऊँचा उठाने वाला पुण्य । जिस प्रकार एक ईंट के ऊपर दूसरी, दूसरी पर तीसरी, इस प्रकार क्रमशः रखते जाने पर दीवार खड़ी हो जाती है, इसीप्रकार पुण्य का संचय होते जाने पर आत्मा ऊँची उठती जाती है। आज आपको जो सांसारिक सुख प्राप्त हुए हैं वे पुण्य से प्राप्त हुए हैं, धन और संतान भी पुण्य से मिले हैं, आपकी श्रद्धा और श्रावकत्व तथा हमारा साधुत्व भी पुण्यों के योग से मिला है। अधिक क्या कहा जाय, जिन्हें तीर्थंकर पद प्राप्त हुआ, वह भी अनंतानंत पुण्यों के संयोग से ही संभव हो सका है। ___ तो बंधुओ, मेरे कहने का सार यही है कि अगर हम अपना भला चाहते हैं और अपनी आत्मा का कल्याण करने की अभिलाषा रखते हैं तो हमें केवल भौतिक या व्यावहारिक ग्रन्थों तक ही अपने ज्ञान को सीमित नहीं रखना चाहिये अपितु अध्यात्मशास्त्रों का पठन और मनन करना चाहिये । क्योंकि भौतिकशास्त्र आपको केवल सांसारिक समस्याओं के सुलझाने में सहायक बन सकते हैं तथा इस लोक में सुख-पूर्वक जीवन बिताने के लिये साधन जुटा सकते हैं। किन्तु इस लोक से आगे वे किसी काम नहीं आएँगे । परलोक में काम आने वाले यानी परलोक को सुधारने वाले आध्यात्मिक शास्त्र ही होते हैं। आप कहेंगे, ऐसा किस प्रकार होता है ? इसलिये कि शास्त्र मानव को सद्गुणों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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