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ज्ञान की पहचान
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सच्चे ज्ञान को अपनाना चाहिए । सम्यक्त्व के अभाव में विपुल ज्ञान भी अज्ञान है और सम्यक्त्व की विद्यमानता में अल्पज्ञान भी सम्यक्ज्ञान है ।
सम्यक्त्व को शक्ति
सम्यक्त्व में बड़ी जबर्दस्त शक्ति होती है । इसकी प्राप्ति हो जाने पर व्यक्ति में सहज ही ऐसा विवेक जागृत हो जाता है, जिसके कारण वह विषयभोगों से विरक्त हो जाता है । भले ही वह उनका त्याग करने में समर्थ नभी हो, फिर भी उनमें लिप्त नहीं होता । अर्थात् वह भोगों को भोगता हुआ भी अंतःकरण से उनमें अनासक्त रहता है ।
इस विषय में एक गम्भीर प्रश्न उठ सकता है कि सम्यकदृष्टि जीव जब भोगों को हेय समझता है तो उनका सर्वथा त्याग क्यों नहीं करता ? हेय समझते हुए भी भोगों का सेवन क्यों करता है ?
इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि विशुद्ध सम्यक्दृष्टि प्राप्त हो जाने पर भी कर्मोदय के कारण वह चारित्र का अनुष्ठान नहीं कर सकता । किन्तु उसका विवेक जागृत रहता है अतः वह सत्य-असत्य, पापपुण्य, हेय - उपादेय सभी को समझता अवश्य है ।
उदाहरण के लिए - कोई व्यक्ति जेल में बंद रहता है और वहाँ रहकर कैदखाने के नियमों का पालन करता है, रूखा-सूखा और नीरस खाना खाता है, कठिन श्रम भी करता है । किन्तु क्या वह प्रसन्नतापूर्वक वह सब करता है ? नहीं, कैदखाने में रहते हुए भी प्रतिपल उसकी यही इच्छा रहती है कि कौन सी वह शुभ घड़ी आये कि मैं इससे छुटकारा पा सकूं । इस प्रकार कैदखाने के प्रति हेय बुद्धि रखता हुआ भी वह विवश होकर सजा की अवधि पूर्ण होने तक वहाँ रहता है, क्योंकि रहना पड़ता है ।
इसी प्रकार सम्यकदृष्टि की भी स्थिति होती है । वह ससार रूपी कारागार से बाहर निकलने की इच्छा रखता है, यहाँ के भोग-विलास भी उसे रुचि कर नहीं होते तथा उनके प्रति वह अत्यन्त हेय बुद्धि रखता है, किन्तु जब तक कर्मों की स्थिति तथा अवधि पूर्ण नहीं हो जाती, तब तक वह विवशता के कारण उन्हें त्याग नहीं सकता, किन्तु जिस क्षण भी कार्य विधि पूर्ण हो जाती है, वह विषय-भोगों से सर्वथा विरक्त हो जाता है तथा शरीर पर से ममत्व हटा लेता है ।
सम्यष्टि और ज्ञानीपुरुषों के विषय में वीर प्रभु ने कहा है :मणं पंचिदियाणि य । भासादोसं च तारिसं ।
साहरे हत्थ पाए य, पावकं च परिणामं,
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- सू० प्र० श्रु० अ० ८, गा० १७
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