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आनन्द-प्रवचन भाग-४ ज्ञानी जन हाथ और पैरों की वृथा हलन-चलन क्रिया को, मन की चपलता को और विषयों की ओर जाती हुई पाँचों इन्द्रियों को तथा पापोत्पादक विचारों को और भाषा संबंधी समस्त दोषों को रोक लेते हैं।
इस प्रकार वे मन, वचन और काया के अनिष्ट व्यापारों को रोककर अपनी आत्मा का गोपन करते हैं तथा आश्रवरूपी कर्म श्रोत को बन्दकर अपने अंत समय में पंडितमरण को प्राप्त होकर निर्वाण के अधिकारी बनते हैं। अज्ञान का परिणाम ___ अभी मैंने आपको बताया था कि सम्यक्त्व और ज्ञान जीव को संसारकारागार से मुक्त करके निर्वाण की प्राप्ति कराते हैं। किन्तु अज्ञान इसका उलटा ही परिणाम लाता है । वह जीव को अनन्त काल तक भी संसार से मुक्त नहीं होने देता तथा पुनः-पुनः जन्म-मरण कराता हुआ नाना कष्टों का भागी बनाता है। 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है
जावंतऽविज्जा पुरिसा, सम्वे ते दुक्ख संभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए ।
-अध्ययन ६-१ जितने भी अज्ञानी-तत्व बोध-हीन पुरुष हैं, वे सब दुःख के पात्र हैं। इस अनन्त संसार में वे मूढ़ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते हैं।
इसका कारण यह है कि अज्ञानी जीव विषय भोगों को उपादेय समझता है और किन्हीं कारणों से उन्हें भोग न सकने पर भी भोगने की अभिलाषा रखता है तथा उनमें अत्यन्त आसक्त बना रहता है।
ध्यान देने की बात है कि ज्ञानी और अज्ञानी की बाहरी चेष्टाएँ एक सी दिखाई देती हैं किन्तु ज्ञानी भोग भोगते हुए भी उनसे विरक्त रहता है और अज्ञानी न भोगते हुए भी उनमें आसक्त रहता है। इसप्रकार भावनाओं का दोनों में बड़ा भारी अन्तर होता है। ज्ञानी अपनी अनासक्त भावनाओं के कारण अंत में मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं और अज्ञानी कर्मों के भार से लदे हुए जन्ममरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। ___ अज्ञानी जीवों में एक सबसे बड़ा दोष यह होता है कि वे अपने आपको सबसे अधिक ज्ञानी मानते हैं । थोड़ा जानने पर भी अधिक जानने का दावा करते हैं और यही समझते हैं कि हम जो कुछ जानते हैं वही सम्पूर्ण है, यानी बोध की पराकाष्ठा हो गई है । अज्ञानियों की यह मांति ही उनकी दयनीय दशा की द्योतक है । अपने अज्ञान के कारण वे अपनी अज्ञानता को भी नहीं जान पाते तो उसे दूर करने की चेष्टा कर भी कैसे सकते हैं ?
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