Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 286
________________ सर्वस्य लोचनं शास्त्रम् २७१ सकेगा। स्वाभाविक है कि भूगोल पढ़नेवाला न्याय के सवालों का उत्तर नहीं दे सकता और ज्योतिष पढ़नेवाला इतिहास के बारे में नहीं बता सकता। सारांश यही है कि जिस विषय को जो पढ़ता है उसी में वह पारंगत होता है तथा जिस विषय को पढ़ना चाहता है वह उसी विषय के ग्रन्थों में पा सकता है । इस प्रकार आध्यात्मिक विषय हमें धर्म-ग्रन्थों में ही मिलता है अन्य व्यावहारिक विषयों के ग्रन्थों में नहीं ? किस धर्म के शास्त्र पढ़े जाँय ?___ बंधुओ, आप लोग महाजन हैं, बाल की खाल निकालने वाले हैं। महाजनों का शरीरबल भले ही कम हो पर दिमागी बल बड़ा जबर्दस्त होता है । अत: आप में से कोई यह प्रश्न भी पूछ सकता है कि धर्म तो अनेक हैं फिर कौन-सा धर्म-शास्त्र हम पढ़ें ? ____ आपका प्रश्न गलत नहीं होगा। जब धर्म अनेक हैं तो धर्मशास्त्र भी अनेक होने स्वाभाविक हैं। उनमें से किसी की भाषा पाली है, किसी की अर्धमागधी इसी प्रकार संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी तथा उर्दू आदि अनेक भाषाओं में धर्म-शास्त्र लिखे गये हैं। किन्तु हमें उनकी भाषा से कुछ नहीं लेना है। देखना यह है कि धर्म के मूल सिद्धान्त वही हैं या नहीं ? और वे मूल सिद्धान्त सभी धर्मों में एक जैसे हैं । सभी धर्म-शास्त्र कहते हैं 'सत्य बोलो, हिंसा मत करो, चोरी को त्यागो, दान दो, शील का पालन करो, आदि-आदि । मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या किसी भी धर्म अथवा धर्मशास्त्र में यह कहा गया है ? झूठ बोलो, हिंसा करो, चोरी करो, व्यभिचारी बनो या कभी दान मत दो ? नहीं, कोई भी धर्म ऐसा नहीं कहता । भले शास्त्र अलग-अलग हैं पर वे हमें आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं। उदाहरणस्वरूप ज्ञान को ही लीजिए ! हम कहते हैं - 'सम्यकज्ञान', अंग्रेजी भाषा वाले कहेंगे- 'राइट नॉलेज', फारसी भाषा बोलने वाले कहते हैं-'इल्मफाजी, ।' इस प्रकार केवल भाषा में फर्क है पर चीज वही है । कोई व्यक्ति उन्हें धर्म-विरोधी नहीं कह सकता। खींचातानी केवल इसलिए होती है कि हम भाषा को मानते हैं और प्रत्येक भाषा-भाषी अपने शास्त्र को पढ़कर अपनी इच्छानुसार अर्थ निकालता हुआ धर्म क्रियाओ में कुछ फेर कर लेता है। लेकिन इनसे धर्म-शास्त्रों को कभी गलत नहीं ठहराया जा सकता। वे सभी सच्चे धर्म को प्रकाशित करते हैं । भगवद्गीता में कहा गया है "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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