Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 284
________________ ज्ञान की पहचान २६६ ____अज्ञानियों की दृष्टि भूतकाल और भविष्यत् काल से हट जाती है तथा केवल वर्तमान की ओर ही रहती है। वे केवल वर्तमान के लाभ और आनन्द को ही देखते हैं तथा भविष्य की ओर से इतने उदासीन हो जाते हैं, मानो भविष्य से उनका कोई सरोकार ही नहीं है। इसीलिये वे अपने भविष्य को सुधारने की तनिक भी परवाह नहीं करते । अपना सुधार वही व्यक्ति कर सकता है जो प्रथम तो अपनी त्रुटियों एव दोषों को पहचाने और दूसरे भविष्य में विश्वास रखे। अज्ञानी में ये दोनों ही बातें नहीं होतीं। वह इस बात का विचार नहीं करता कि संसार और संसार के सारे पदार्थ नाशवान हैं। जैसा कि भर्तृहरि ने कहा है भोगा मेघवितानमध्य विलसत्सौदामिनी चंचला। आयुर्वायु-विघट्टिताभ्रपटली लीनाम्बुवद् भंगुरम् ॥ लोला यौवन लालसा तनुभृतामित्याकलय्यद्रुतं । योगे धैर्य समाधि सिद्धि सुलभे बुद्धि विदध्वं बुधाः ।। अर्थात-देह धारियों के भोग विषय सुख, सघन बादलों में चमकने वाली बिजली की तरह चंचल हैं । मनुष्यों की आयु हवा से छिन्न-भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षण-स्थायी या नाशवान है। और युवावस्था की उमंग भी स्थिर नहीं है । इसलिये बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योग साधना में लगाओ। ___अभिप्राय यही है कि मनुष्य की आयु और इस संसार के समस्त मनमोहक पदार्थ नाशवान हैं । अतः अज्ञानी पुरुष ही इनमें आसक्ति रखते हैं तथा अपनी विवेकहीनता के कारण इनमें शुद्धता एवं ममत्वभाव रखते हैं। परिणाम यह होता है वे अपने जीवन काल में तो कर्मों का बंधन करते ही रहते हैं, अंत समय में भी हाय-हाय करते हुए बाल-मरण मरते हैं तथा कुगति में जाते हैं। इसलिये बंधुओं ! हमें ज्ञान की सच्ची पहचान करके आध्यात्मिक ज्ञान हासिल करना है । आध्यात्मिक या पारमार्थिक ज्ञान के समान पावन और दुर्लभ वस्तु इस संसार में दूसरी नहीं है। इसे प्राप्त करने पर ही मनुष्य अपना लोकिक और लोकोत्तर कल्याण करने में समर्थ बन सकता है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only

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