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आनन्द-प्रवचन भाग-४
इसीलिये कहा जाता है
गुणाः कुर्वन्ति दूतस्वं दूरेऽपि वसतां सताम् ।
केतकी गन्धमाघ्राय स्वयमायान्ति षट्पदाः ॥ सद्गुणी पुरुष चाहे दूर भी रहें पर, उनके गुण उनकी ख्याति-प्रसार के लिए स्वयं ही दूत का कार्य करते हैं। केवड़े के पुष्प की सुगन्ध से आकर्षित होकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले आते हैं।
तो बंधुओं, मनुष्य के रूप-रंग, जाति और कुल का कोई महत्व नहीं है, महत्व होता है केवल उसके गुणों का। भक्त रैदास चमोर थे, किन्तु उनके भक्ति के असाधारण गुण के कारण ही स्वयं गंगा ने उन्हें वरदान दिया और आज भी लोग गद्गद होकर उन्हें स्मरण करते हैं। इसलिये प्रत्येक पुरुष को अगर सच्चा पुरुष कहलवाना है तो उसे सत्य, अहिंसा, शील, सेवा, क्षमा, करुणा एवं आचरण को सुन्दर बनाने वाले समस्त गुणों को अपनाना चाहिए और यह गुणों के प्रति अनुराग रखने पर ही संभव हो सकता है। ___जो व्यक्ति गुणों का अनुरागी और पारखी होता है, वह यह नहीं देखता कि उसे गुण कहाँ से ग्रहण करने चाहिए। वे जहां कहीं भी मिले वह वहां से ग्रहण कर लेता है । इसका कारण यही है कि वह भली भाँति जानता है
कौशेयं कृमिजं सुवर्णउपलाद् दूर्वापि गोरोमतः । पंकात्तामरसं शशांक उदरिन्दीवरं गोमयात् ।। काष्ठादग्नि रहेः फणादपि मणिोपित्ततो रोचना । प्राकाश्यं स्व गुणोदयेन गुणिनो गच्छन्ति किंजन्मना ?
-पंचतंत्र रेशम कीड़े से, सोना पत्थर से, नील-कमल गोबर से, लालकमल कीचड़ के, चन्द्रमा समुद्र से, गोरोचन गाय के पित्त से, अग्नि काष्ठ से, मणि सर्प के फन से, और दूब कहते हैं कि गौ के रोम से उत्पन्न होती है । इन सब वस्तुओं के उत्पत्तिस्थान महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु गुण महत्वपूर्ण हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि महिमा गुणों की ही मानी जाती है जन्म स्थान की नहीं। ___ इसीलिये हमारा धर्म कहता है कि गुण कहाँ से भी मिलें प्राप्त करो और एक अक्षर भी जिससे सीखो उसे गुरु मानो । चाहे वह किसी भी हीन जाति या कुल का क्यों न हो। (३) भोगी परिजनैः सह
यह तीसरा गुण है; जो सच्चे पुरुष में होना चाहिये । सच्चा मानव वही
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