Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 272
________________ आचारः परमोधर्मः २५७ मात्र से ही उनका लाभ आत्म-कल्याण के रूप में हासिल नहीं हो सकता जब तक कि उन्हें आचरण में न लाया जाय । आशा है अब आप समझ गए होंगे कि जिसप्रकार शरीर के अन्य अंगों की अपेक्षा चरणों का महत्व अधिक है उसीप्रकार दर्शन और ज्ञान की अपेक्षा आचरण का महत्व भी अधिक है। यही कारण है कि इन दोनों महत्वपूर्ण अंगों को एक ही शब्द 'चरण' के नाम से उल्लिखित किया गया है तथा प्ररूपणा का सार आचरण कहा गया है। गाथा में आगे पूछा है-उसका भी सार क्या है ? आचरण का सार क्या है ? तो उत्तर में कहा है ---'निव्वाणं ।' निव्वाणं यानी निर्वाण । अगर व्यक्ति शुद्ध चारित्र का पालन करता है तो निर्वाण की प्राप्ति होती है। कहा भी है - भिक्खाए वा गिहत्थेवा, सुव्वए कम्मई दिवं । भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती सदाचारी है, वह दिव्यगति को प्राप्त होता है। यहाँ पर एक बात ध्यान में रखने की है कि चारित्रपालन के लिए आयूष्य की बड़ी जरूरत है । अगर आयुष्य न हो तो चारित्र का पालन कैसे होगा ? क्योंकि चारित्र का पालन इस शरीर से ही होता है। इस विषय में आप को एक शास्त्रोक्त उदाहरण देता हूँ। गौतमस्वामी ने एक बार भगवान् महावीर से पूछा-'भगवन् ! श्रद्धा इस लोक में ही काम आती है या परलोक में भी ?" ___भगवान् ने उत्तर दिया-'श्रद्धा इस लोक में भी उपयोग में आती है और परलोक में भी।' गौतमस्वामी ने पुनः प्रश्न किया--"भगवन् ! सम्यक्ज्ञान इस लोक में ही काम आता है या परलोक में भी काम आता है ? ' भगवान् ने फरमाया - "ज्ञान इस लोक में भी काम आता है और परलोक में भी काम आता है।" जिसकी आत्मा पर जो संस्कार होते हैं, वे परलोक में भी उसके पास रहते हैं। इसीप्रकार ज्ञान भी है। जो आत्माएँ यहाँ से ज्ञान प्राप्त करके यहाँ से गई हैं, परलोक में भी ज्ञान-ध्यान में निमग्न हैं । उनका आयुष्य भी हमारी अपेक्षा अनेक गुना अधिक है। वे ज्ञानी आत्माएँ देवलोक में जिन विमानों में बैठकर गईं है वहां तैतीस हजार वर्ष के बाद उनकी खाने की इच्छा होती है जबकि यहाँ एक हजार वर्ष में ही कई पीढियां बीत जाती हैं । वे For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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