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आनन्द-प्रवचन भाग-४
दी तो आप चुपचाप स्वयं भी यथाशक्ति अपनी-अपनी रकम लिखवा देंगे और नहीं कहेंगे—“पहले आप तो दीजिये ! फिर हम भी देंगे।"
तो बंधुओ ! प्ररूपणा करने के लिये पहले स्वयं ही क्रिया करनी पड़ेगी। हमारे यहाँ एक मुनि खड़े रहते हैं । यह भी तपस्या है। पर अगर वे कहें कि मुझसे तो खड़ा नहीं रहा जाता पर तुम खड़े रहो तो कौन मानेगा ? कोई नहीं !
इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है --- प्ररूपणा का सार स्वयं आचरण करना है । गाथा में 'चरण' शब्द आया है । चरण का अर्थ है आचरण । इसे चरण क्यों कहा गया ? इसमें भी गूढ़ अर्थ है, और वह इस प्रकार है--चरण आप पैरों को भी कहते हैं । साढ़े पांच हाथ के शरीर का सम्पूर्ण बोझ चरण ही उठाते हैं । इसलिए नमस्कार भी चरणों को ही किया जाता है। मस्तक को कोई प्रणाम नहीं करता । स्पष्ट है कि मस्तक, हाथ, छाती, पेट आदि समस्त अंगों की अपेक्षा चरणों का महत्व अधिक है और वही श्रद्धा के पात्र होते हैं।
इसीप्रकार यद्यपि धर्म के तीन अंग हैं-सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्य चारित्र । जीवन में दर्शन अर्थात् श्रद्धा का होना आवश्यक है, ज्ञान का होना भी अनिवार्य है किन्तु इन दोनों को क्रियात्मकरूप देने के लिये चारित्र या आचरण का होना तो श्रद्धा व ज्ञान की अपेक्षा भी अधिक महत्वपूर्ण है । केवल श्रद्धा और ज्ञान से क्या हो सकता है, जबकि उनका कोई उपयोग ही न किया जाय । . संत तुकाराम महाराज ने कहा है--
"बोलालाच भात, बोलाचीच कढ़ी,
खाऊँनियां तप्त कोण झाला ?" तात्पर्य यह है कि आपने लोगों को भोजन के लिये आमंत्रित किया। समय पर पंगत खाने के लिये बैठ भी गई। किन्तु आपके पास खाद्य वस्तु कोई भी तैयार नहीं है और आप उन व्यक्तियों के सामने घूम-घूम कर कहते हैं
"लीजिये साहब ! चावल, लीजिये कढ़ी ?'
बर्तन आपका खाली है और आप केवल जबान से ही कढ़ी और चावल परोस रहे हैं तो बताइये आपके बोलते रहने मात्र से ही क्या भोजन करने वाले तृप्त हो जाएँगे ? नहीं।
तो जिस तरह कढ़ी और भात के उच्चारण मात्र से भोजन करने वालों के पेट नहीं भर सकते, उसी प्रकार हृदय में श्रद्धा और मस्तिष्क में ज्ञान होने
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