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विषम-मार्ग मत अपनाओ !
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उनकी चौथी गति यह होती है कि वे मार्ग की सही पहचान न होने के कारण अपने जैसे ही अन्य यात्रियों की बातों में आकर किसी गलत मार्ग पर चल देते हैं और जैसा कि स्वाभाविक ही है उन्हें मंजिल तो मिलती नहीं और थक जाने से जब शारीरिक शक्ति भी क्षीण हो जाती है तो घोर पश्चाताप के सागर में जा पड़ते हैं और शोक करते हैं। __ 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के पांचवें अध्याय की चौदहवीं एवं पंद्रहवीं गाथा में भगवान महावीर ने फरमाया है
जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खेभग्गम्मि सोयइ ।। एवं कम्मं विउकम्मं अहम्म पडिवज्जिया।
बाले मच्चमुहंपत्त, अक्खे भग्गे व सोयह ॥ अर्थात्-जिस प्रकार जानबूझकर राज-मार्ग को छोड़कर विषम मार्ग पर जाने वाला गाड़ीवान धुरी के टूट जाने पर शौक करता है, उसी प्रकार धर्म छोड़कर अधर्म ग्रहण करने वाला अज्ञानी मृत्यु के मुह में जाने पर शोक करता है ।
बंधुओ, हम देखते हैं कि इस पृथ्वी पर के छोटे और आँखों से दिखाई देने वाले मार्ग पर भी अगर गाड़ीवान गाड़ी को सही तरीके से न चलाए तो जान जाने की नौबत आ जाती है। सीधे और सम रास्ते पर चलाने पर बैलों को तकलीफ नहीं होती, गाड़ी का कोई पुर्जा टूटने का डर नहीं रहता, अन्दर रखी हुई वस्तुओं को टूटने-फूटने का भय नहीं होता और उसमें बैठे हुए व्यक्तियों की जान भी सुरक्षित रहती है। किन्तु अगर गाड़ी को सममार्ग पर न चलाया जाय तो सबसे पहले तो बेजुबान बैलों को चलने में बड़ा कष्ट होता है क्योकि उनके कंधों पर मनों बोझ रहता है, दूसरे उसमें बैठे हुए प्राणियों के प्राण संकट में रहते हैं और कहीं गाड़ी उलट गई तो गाड़ी तो टूट-फूट जाती ही है, उसमें रहा हुआ सामान भी यत्र-तत्र बिखर जाता है
और इस प्रकार केवल सब तरह के नुकसान के अलावा और कुछ भी हाथ नहीं आता । मंजिल तो दूर छूट जाती है सो है ।
हम आये दिन देखते हैं और सुनते भी हैं कि अमुक स्थान पर बस उलट गई या अमुक पहाड़ी पर से लुढ़ककर चूर-चूर हो गई। सारे यात्री भी कुछ क्षणों में ही जान से हाथ धो बैठे । यह क्यों होता है ? केवल ड्राइवर की असावधानी के कारण। खतरे के स्थान पर अगर समय की परवाह न करके वह अपनी बस को धीमी गति से चलाए तो न उसके उलटने
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