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आनन्द-प्रवचन भाग-४
अनुसार लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठकर मार्ग बताने लगा और उसके संकेत पर अंधा चल पड़ा । परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे दोनों सुरक्षित स्थान पर पहुंच गए।
बंधुओ, निश्चय और व्यवहार अथवा ज्ञान तथा क्रिया का भी यही हाल है । ज्ञान यद्यपि देख सकता है, अनुभव कर सकता है किन्तु वह केवल जानने समझने वाला है, स्वयं क्रियात्मक रूप धारण नहीं कर सकता। और क्रिया कार्य सम्पन्न कर सकती है पर वह उचित अनुचित का ज्ञान नहीं कर सकती अतः निष्फल साबित हो जाती है । बिना ज्ञान के कार्य करना बालू में से तेल निकालने और पानी को बिलोकर मक्खन पाने की आकांक्षा करने के समान हो जाता है । संक्षेप में ज्ञान लंगड़ा होता है और क्रिया अंधी । अलगअलग रहकर ये दोनों ही मानव-जीवन को सफल नहीं बना सकते । मानव का जीवन तभी सफल बन सकता है, जबकि मनुष्य ज्ञान के द्वारा सही मार्ग को समझे और क्रिया के द्वारा उस पर चले । इन दोनों के सुमेल से ही वह आत्म-उत्थान के सही पथ पर बढ़ सकता है।
यही बात श्रुति शास्त्र और स्मृति शास्त्र बताते हैं । आवश्यक है उनका अध्ययन और उन पर मनन करना अथा संतों के द्वारा जिनवाणी का श्रवण करना । जो व्यक्ति सद्गुरु की संगत नहीं करता और उनके उपदेशों पर अमल नहीं करता वह अज्ञानी व्यक्ति न ज्ञान ही हासिल कर पाता है, और न अपना आचरण ही शुद्ध बना सकता है। संत-जीवन तो स्वयं ही एक खुली हुई पुस्तक के समान होता है जिसका अवलोकन करके भी व्यक्ति कुछ न कुछ हासिल कर सकता है। मराठी भाषा में एक प्रश्न और उसका उत्तर दिया गया है
संताप हा शांत कशा प्रकारे ?
संता पहा शांत कशा प्रकारे ! पहली लाइन में किसी पण्डित ने पूछा है-'हाय ! मेरा संताप किस प्रकार शांत होगा ?' उत्तर अगली लाइन में बड़े सुन्दर तरीके से उन्हीं शब्दों में समझाया है- 'संतो को 'पहा' यानी देखो, वे किस प्रकार शांत रहते हैं।'
अभिप्राय यही है कि दुःख और संताप तब तक कम नहीं होते, जब तक कि शांति धारण न करली जाय । कष्ट के समय हाय-हाय करने से और आर्त ध्यान करने से उस समय भी दुःख कम नहीं होता और कर्म-बंधन हो जाने से भविष्य में भी दुःख उठाना पड़ता है। किन्तु जो व्यक्ति पीड़ा और संताप को शांति से सहन करते हैं वे उस समय भी अपने मन की व्याकुलता से बच जाते हैं और भविष्य के लिए निर्भय हो जाते हैं ।
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