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आनन्द-प्रवचन भाग-४
रख सकता था, अन्यथा पुण्यहीन और कुमार्गगामी के धन का तो वे उलटे अपहरण कर लेते थे ऐसा भी वर्णन आता है ।
तो दान देना मनुष्य जीवन की सार्थकता है और जिन्हें धर्म की तनिक भी पहचान होती है, वे इससे मुह नहीं मोड़ते । क्यों कि दया ही धर्म का सबसे बड़ा लक्षण है । धर्म के विषय में किसी ने प्रश्न करते हुए लिखा हैकथमुत्पद्यते धर्मः, कथं धर्मो विवर्धते ?
कथं च स्थाप्यते धर्मो, कथं धर्मो विनश्यति ?
पहला प्रश्न यह है कि - धर्म की उत्पत्ति किस प्रकार होती है ? दूसरा प्रश्न यह है— धर्म की वृद्धि कैसे होती है ? तीसरा प्रश्न है-धर्म किस प्रकार स्थिर रहता है और चौथे प्रश्न में पूछा है— धर्म का नाश कैसा होता है ? उत्तर में कहा गया है
"सत्येनोत्पद्यते धर्मे दया दानेन वर्धते ।"
अर्थात् - धर्म की उत्पत्ति सत्य से होती है, दूसरे शब्दों में जहाँ सत्य होता है, वहीं धर्म निवास करता है ।
आप लोग कहेंगे कि -- ' सदा सत्य ही बोलेंगे तो हमारा काम कैसे चलेगा ? भूखे मर जायेंगे, खाने को भी नहीं मिल पायेगा ।' लेकिन ऐसी बात नहीं है । यह हमारे दिल की कमजोरी है । आज भी हम देखते हैं कि बम्बई में जिनका लाखों रुपयों का व्यापार है वे सच्चाई से अपना काम करते हैं । ग्राहक देखकर वे वस्तुओं का मोल घटाते बढ़ाते नहीं वरन् एक ही दाम रखते हैं । तो क्या वे भूखे मरते हैं ? नही, पर आज ऐसे सच बोलनेवाले कम हैं और झूठ बोलने वाले अधिक हैं । इसलिए सच बोलने वालों का भी दुनियां विश्वास नहीं करती । एक दृष्टान्त है
"है सौ रुपयों की थैली, फिर से सभी को परखे, उज्ज्वल धरम में हरगिज, आपके सामने एक थैली है जिसमें सौ रुपये हैं। अगर उनमें से एक भी रुपया खोटा निकल आता है तो आप बाकी निन्यानवे को अच्छी तरह ठोकपीटकर देखते हैं, तब कहीं उन्हें पुनः रखते हैं । इसी प्रकार थैली में निन्यानवे रुपये खोटे हों और एक असली हो तो उसे भी मार खानी पड़ती हैं ।
तात्पर्य यही है कि सत्यवादी को सदा ही कठिन संकट में से गुजरना पड़ता है किन्तु अगर वह सच्चा है तो परीक्षाओं में से गुजरने के बाद भी वह सच्चा रहता है और उसका लोहा सभी को मानना पड़ता है ।
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खोटा जो एक शंका तभी कुछ पोल ना चलेगी ॥
निकले । मिटेगी ।
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