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आनन्द-प्रवचन भाग-४
महान दार्शनिक शेक्शपियर ने भी कहा है
"Mercy is turice blessed ; it blessed him that gives, and him that takes." - दया की कृपा दुतरफी होती है । यह दाता पर भी कृपा करती है और पात्र पर भी।
दान का महत्व प्रत्येक धर्म में बहुत अधिक माना जाता है । केवल जैन शास्त्र ही नहीं वरन अन्य सभी शास्त्र एक स्वर से दया करने और दान देने का आदेश देते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है-'देशे, काले च क्षेत्र च।' अर्थात्-देश, काल और क्षेत्र के अनुसार कहाँ कैसी जरूरत है यह देखकर व्यक्ति दान करे । दान देने से कभी व्यक्ति को हानि नहीं होती। मैंने अभी आपको बताया था कि दान का फल अनेक गुना पुण्य के रूप में पुनः लौट आता है। कहा भी है
ब्याजे. स्यात् द्विगुणं वित्त, व्यापारे च चतुर्गुणं ।
क्षेत्र शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् ॥ अर्थात्-रुपया दान देने पर दुगुना, व्यापार में लगाने से चौगुना, खेती से सौ गुना हो सकता है किन्तु पात्र में देने से वह अनन्तगुना हो जाता है ।
संत तुकाराम जी ने भी अपने धन को दान में काम न लेने वाले लोभी व्यक्ति को धिक्कारते हुए कहा है
"धिक जीणे त्याचे, लोभावरी मन ।
अतिथी पूजन घड़ेचि ना। यानी—उस व्यक्ति के जीवन को धिक्कार है जिसका हृदय पूर्णतया लोभ से ग्रस्त है । जो अपना ही पेट और अपनी ही तिजोरी भरता है किन्तु कभी दान या परोपकार की ओर ध्यान नहीं देता तथा घर आये हुए अतिथि का भी सम्मान और आदर नहीं करता। प्राचीन काल के ब्राह्मण समाज के विषय में सुनते हैं कि वे अकेले कभी भोजन नहीं करते थे वरन् किसी न किसी को साथ लेकर ही खाते थे।
हमारे जैन शास्त्रों में भी अनेक उदाहरण ऐसे आते हैं जिनके बारे में पढ़कर आश्चर्य होता है । अरणक श्रावक को सार्थवाह की पदवी मिली थी। वह क्यों ? इसलिये कि जब वे व्यापार करने जाते थे तो सम्पूर्ण नगर के लोगों को सूचित करवा देते थे कि-'जिस किसी को भी हमारे साथ परदेश में व्यापार करने चलना हो, खुशी से चल सकता है। साथ में चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति के खाने-पीने का, कपड़े-लत्ते का तथा आवश्यकतानुसार औषधोपचार का प्रबन्ध हम करेंगे । साथ ही हमारे साथ व्यापार करने पर
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