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आनन्द-प्रवचन भाग-४ निर्दोष और सुन्दर बनाता है, न्यायशास्त्र बुद्धि को तीक्ष्ण बनाता है, ज्योतिष शास्त्र यहां बैठे-बैठे बता देता है कि सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण कब होगा तथा साहित्य शास्त्र कहता है-इस प्रकार बोलो और इस प्रकार शब्दों का प्रयोग करके भाषा को अलंकारमय बनाकर सुन्दरता प्रदान करो।
पर भाइयो ! ये सभी शास्त्र हमें इह-लौकिक सफलता ही प्रदान कर सकते हैं तथा हमारे इस जीवन को ही भिन्न-भिन्न प्रकार से संवार सकते हैं, किन्तु इनमें कोई भी हमारे परलोक को नहीं सुधार सकता तथा आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता । इस दृष्टि से केवल आध्यात्मिक शास्त्र ही एक ऐसा शास्त्र है जो यह बताता है कि आत्म उद्धार कैसे होता है, और आत्मा पापों से लिप्त कैसे होती है ? इसके अलावा केवल इतनी जानकारी देकर ही यह चुप नहीं हो जाता वरन् यह भी बताता है कि पापों से छुटकारा कैसे मिलता है । ? कैसी साधना कर्मों का नाश करती है, और उस साधना का किस प्रकार अभ्यास किया जाता है ? शास्त्र ही हमें बताता है कि दान, शील, तप और भाव रूप धर्म की आराधना करने से आत्मा विशुद्ध बनती है। __ जैन शास्त्र धर्म के इन चार मुख्य रूपों में भावना को बहुत महत्त्व देते हैं, यों तो चारों ही धर्म के अंग हैं । किन्तु भाव रूप में धर्म, प्राण के समान माना गया है। जिस प्रकार शरीर का महत्त्व प्राणों से ही है; जब तक प्राण विद्यमान हैं शरीर टिका रहता है तथा उससे लाभ उठाया जा सकता है; उसीप्रकार भाव के होने पर ही दानादि धर्म फलप्रद बनते हैं। कहा भी हैं
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः । ___ यानी भाव के अभाव में केवल शरीर से की जाने वाली क्रियाएँ निष्फल साबित होती हैं।
आध्यात्मिक शास्त्रों में भावना को लेश्या का नाम दिया गया है तथा उसका बड़ा विशद और गढ़ विवेचन किया है। प्रसंग आ जाने में संक्षेप में आपको लेश्या के विषय में बता रहा हूँ। लेश्या के छः भेद हैं
(१) कृष्ण लेश्या (१) नील लेश्या (३) कापोत लेश्या (४) पीत लेश्या (५) पद्म लेश्या तथा (६) शुक्ल लेश्या । __ इन छहों में से प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ निष्कृट होती हैं और अंतिम तीनों श्रेष्ठ । किन्तु पहली से लेकर छठी तक ये क्रमशः एक दूसरी से श्रेष्ठ होती जाती हैं । अर्थात् - कृष्ण की अपेक्षा नील, नील की अपेक्षा कपोत, कपोत की अपेक्षा पीत, पीत की अपेक्षा पद्म और पद्म की अपेक्षा शुक्ल लेश्या श्रेष्ठ और विशुद्ध होती है।
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