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आज काल कि पांच दिन जंगल होगा वास
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क्षण में क्षीण होती हुई आयु समाप्त हो गई और धर्माचरण न किया गया तो मानव-जन्म के लक्ष्य की सिद्धि होना असंभव है । क्योंकि धर्माचरण से रहित मनुष्य अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करते रहता है ।
खेद की बात है कि मृत्यु को पहचानता हुआ भी मानव केवल अपने वर्तमान को देखता है और भविष्य के संबंध में नितान्त उपेक्षा की वृत्ति रखता है । कदाचित् कभी भविष्य की ओर देखता भी है तो इस प्रकार मानों उसे सदैव जीवित ही रहना है । 'मैं' और 'मेरी' के संकल्प-विकल्पों में उलझा हुआ वह, उन्ही की संतुष्टि के प्रयत्न में रहता है ।
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वह भूल जाता है कि इस लोक में संचित किया हुआ धन परलोक में तो काम आता ही नहीं, उलटे अवसर पढ़ने पर इस लोक में भी सहायक नहीं बनता । हम देखते ही हैं कि अनेक बार अशुभ कर्मों के उदय होने पर व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है और लाखों रुपया लुटा देने पर भी उनसे छुटकारा प्राप्त नहीं सकता । इसी प्रकार सर्वस्व त्याग देने पर भी वह मौत से नहीं बच पाता । तो बताइये, धन इस लोक में भी क्या काम आया ? यही बात स्वजन - परिजनों के संबंध में भी है । जिस प्रकार धन से रोग नहीं हटाये जा पाते और मृत्यु से नहीं बचा जाता, उसी प्रकार स्वजन - परिजन भी किसी को मृत्यु से नहीं बचा सकते । कहा भी हैकौन बचाएगा तुझको जब मृत्यु दूत घेरेंगे ।
आसपास हो खड़े स्वजन सब टुकुर-टुकुर हेरेंगे ॥
इसलिये मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य यही है कि वह प्राप्त जीवन का सम्पूर्ण लाभ उठाकर आत्मकल्याण करे । प्रकृति ने उसे असीम शक्तियाँ प्रदान की हैं, जिनकी सहायता से वह ऊँचें से ऊचा उठ सकता है, यहाँ तक कि परमात्मा का पद भी पा सकता है । पर यह सहज ही हो सकनेवाला नहीं है । इसके लिये धर्माराधन करना पड़ेगा, शास्त्रों के विधानों को अपनाना होगा, भूतकाल के पापों का प्रायश्चित करते हुए भविष्य में उत्कृष्ट भावनाओं को हृदय में स्थायी स्थान देना होगा तथा सद्गुणों की सौरभ से जीवन को महकाना होगा ।
ऐसा करने पर ही श्रद्धाशील एवं विवेकी साधक स्व एवं पर का कल्याण करने में समर्थ बनता हुआ अक्षय शांति और अनन्त सुख का भागी बनेगा ।
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