________________
मन के मते ना चालिये....
१६५
हेमं वा आयसं वावि, बंधणं दुक्खकारणा।
महग्घस्सावि दंडस्स, णिवाए दुक्खसंपदा । अर्थात्- बंधन चाहे सोने का हो या लोहे का, बन्धन तो आखिर दुःखकारक ही है । बहुत मूल्यवान् डंडे के प्रहार से भी दर्द तो होता ही है।
अतः बंधुओ ! आपको यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि पापों का बंधन करने से तो अनेक गुना अच्छा पुण्य कर्मों का बंधन करना है, किन्तु सबसे अच्छा है दोनों का ही बंधन न करना। इसलिये हमें यही भावना रखनी चाहिये कि हम दोनों ही प्रकार के बंधनों से मुक्त होकर सदा के लिये सच्चे सुख को उपलब्ध कर सकें। तभी हमारा मनुष्य जन्म पाना पूर्णतया सार्थक हो सकेगा।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org