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आनन्द-प्रवचन भाग-४ .
होती अतः बहाने बना लेते हो । पर अगर उस समय कोई लेन-देन वाला आ जाय तो? तो उसी समय उठकर बहीखाता सम्भाल लेते हो। भिखारी को कुछ देने के लिए भले ही न उठो पर पैसे का जहाँ काम आया फौरन सुस्ती उड़ जाती है चाहे बीमार ही क्यों न होओ।
पर भाई ! ऐसे काम चलने वाला नहीं है । अभी तो तुम्हारी बहानेबाजी और धांधली चल जाएगी किन्तु आगे जाने पर जब तुम्हारे सुकर्म और कुकर्म का हिसाब होगा उस समय धांधली नहीं चलेगी। दूध का दूध और पानी का पानी हो जायगा । उस समय फिर पश्चात्ताप और दु ख आड़े नहीं आएगा।
इसलिये अगर बाद में पश्चाताप नहीं करना है और कुछ पूजी इकट्ठी करनी है तो अभी समय है। और कुछ किया जा सकता है । अतः मन के विकारों को नष्ट करके धर्माराधन करो। सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति हटाकर मन को विरक्ति की ओर उन्मुख करो । तृष्णा तो कभी शान्त होती नहीं। यह वह अग्नि है जिसमें चाहे जितनी धन-दौलत डाली जाय अधिक से अधिक धधकती है । इसलिये इसे तृप्त करने की इच्छा रखने वाल। अज्ञानी है। ज्ञानी वह है जो अपनी तृष्णा को खुराक न देकर उसे मूल से ही नष्ट कर देता है। कवि सुन्दरदासजी ने भी ज्ञानी उसी को कहा है जो :
कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे, शुभ न अशुभ परे, यातें निधड़क है । बस तीन शून्य जाके, पापह न पुण्य ताके, अधिक न न्यून बाके, स्वर्ग न नरक है । सुख दुःख सम दोऊ, नीचहु न ऊँच कोऊ, ऐसी विधि रहे सोऊ, मिल्यो न फरक है। एक ही न दोय जाने, बन्ध-मोक्ष भ्रम मान,
'सुन्दर' कहत, ज्ञानी ज्ञान में रहत है। अर्थात्-ज्ञानी वहीं है जो आजीविका के लिये भी कभी हाय-हाय नहीं करता और न ही किसी की खुशामद या आजीजी ही करता है । वह तो भिक्षा के द्वारा रूखा-सूखा प्राप्त करके भी आनन्द से अपनी पेट-पूर्ति कर लेता है। न वह भाव को धारण करता है और न अभाव की परवाह करता है। उसके लिये शुभ और अशुभ कोई महत्त्व नहीं रखते इसलिये वह बेधड़क होकर अपना समय ईश-भक्ति में व्यतीत करता है।
अच्छा पहनने को मिल जाय तब भी यह खुश, नहीं होता और चिथड़ों की गुदड़ी ओढ़ना पड़े तब भी दुखी नहीं होता । मान-अपमान और सुख-दुख
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