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मुक्ति का द्वार-मानव-जीवन
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उन पर अनेकानेक काले धब्बे लगा लिये हैं और कभी भी उन्हें मिटाने का प्रयत्न नहीं किया। ____ जिस प्रकार साबुन और पानी के द्वारा वस्त्रों पर पड़े हुए दाग धुल जाते हैं और वह स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार किये हुए पापों को भी पश्चात्ताप और प्रायश्चित के द्वारा निर्मूल करके आत्मा को पवित्र बनाया जा सकता है । अगर व्यक्ति ज्ञानरूपी साबुन काम में लेता रहे तथा समय-समय पर विकारों के द्वारा पड़े हुए आत्मा के धब्बों को धोने का प्रयत्न करता रहे तो कोई कारण नहीं है कि वे धुल न सके और आत्मा शुद्ध न बन सके । आगे कहा है
भले जनां दा संगन कीता, जिनवाणी न सुनयां नां, मानुषते बेअकली कीती, शरण गुरां दो आया नां ।
सतगुरु शिक्षा लीती नाही, हीरा जन्म अमोल गया, __ मिट्टी विच रुला के हीरा, हीरे । तै पाया नां ॥ कहते हैं- अरे अबोध ! तूने कभी भले व्यक्तियों की संगति नहीं की, सदा ही कुसंग में पड़ा रहा फिर कैसे तुझे आत्म-कल्याण का सही मार्ग मिलता? कहा भी है
आप अकारज आपनो, करत कुसंगति साथ ।
पाय कुल्हाड़ा देत है, मूरख अपने हाथ ।। अर्थ स्पष्ट है कि मूर्ख व्यक्ति कुसंगति में पड़कर अपने हाथ से मानों अपने पैर में ही कुल्हाड़ी मार लेता है। अर्थात् बुरे व्यक्ति की संगति में रहने से वह कुविचारों को अपनाता है और स्वभावतः कुविचारों के कारण अनाचार का पालन करता हुआ अपनी आत्मा को पापों में जकड़कर अपना ही अहित करता है।
इसीलिये कवि कहता है-अरे नादान ! तूने न तो कभी सज्जन पुरुषों की संगति की, न कभी भगवान की वाणी का श्रवण किया और न ही कभी सद्गुरु की शरण में आकर उनसे आत्म-हितकारी शिक्षा भी ग्रहण की । इस प्रकार तूने जीवन भर बेअकली ही की है । अगर तुझमें तनिक भी अकल और समझ होती तो तू अपने जीवन को इस प्रकार गुण रहित और दाग-दार नहीं बनाता । तथा अपने मानव-जन्म रूपी हीरे की कद्र करता । किन्तु तूने तो उस अबोध बालक के समान कार्य किया है, जो हीरे की कद्र न जानने के कारण उससे घड़ी भर खेलकर मिट्टी में डाल देता है और भूल जाता है कि हीरे जैसी अमूल्य वस्तु मुझे प्राप्त हुई थी। . जिस प्रकार हीरा अपनी कीमत पहचान भी जाने पर व्यक्ति को निहाल कर देता है और कद्र दान के अभाव में मात्र एक कंकर बनकर रह जाता है।
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