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आनन्द-प्रवचन भाग-४
उसी प्रकार जो व्यक्ति मानव-जन्म के महत्त्व को समझ लेता है, वह उससे इतना लाभ उठा लेता है कि पुनः कभी जन्म लेने की उसे जरूरत ही नहीं पड़ती। किन्तु उसो मनुष्य-जन्म की कीमत न समझने वाला मूर्ख व्यक्ति उससे लाभ उठाना तो दूर उलटे इतने कर्म बांध लेता है कि अनन्तकाल तक पुनः पुनः जीता और मरता रहता है । जीवन को सार्थकता
बंधुओं, हमें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि एक मानव-जीवन वृथा चला जाय तो पुनः उसका प्राप्त होना अत्यन्त कठिन हो जाता है। यह नहीं कहा जा सकता कि पुनः इसकी प्राप्ति कब होगी। अतएव ऐसे जन्म को यों ही नष्ट कर देना महान् मूर्खता का लक्षण है । और इसलिये प्रतिपल यह स्मरण रखते हुए कि मृत्यु न जाने किस क्षण आ जायगी हमें जीवन के एकएक क्षण का लाभ उठा लेना चाहिए।
अब प्रश्न यह है कि जीवन का लाभ किस तरह उठाया जा सकता है अथवा आत्म-कल्याण किस तरह किया जा सकता है ? आत्म-कल्याण का अर्थ है आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हो जाना । यह तभी हो सकता है कि मन के विकारों को दूर किया जाय और इन्द्रियों के विषयों से बचा जाय। जो मनुष्य इन्द्रिय-विजयी हो जाता है वह संसार में रहता हुआ भी सांसारिक पदार्थों से उदासीन रहता है तथा अनासक्तभाव से खाना, पीना, पहनना, सुनना और देखना आदि समस्त क्रियाएँ करता है। किसी भी पदार्थ या प्राणी के प्रति उसका राग भाव नहीं होता । चिकने कर्मों का बन्धन राग और द्वेष की भावना से होता है। अत: जो व्यक्ति इनसे बच जाता है वह संसार में रहते हुए और सांसारिक सुख-साधनों का उपभोग करते हुए भी कर्म बंधनों से बच जाता है । अतएव आसक्ति, लोलुपता एवं वृद्धि का त्याग कर देना ही वास्तव में आत्म-कल्याण का मार्ग है। इनका त्याग जितनी-जितनी मात्रा में होता जाता है आत्मा विशुद्ध होती जाती है तथा वह अपने निज स्वरूप को प्राप्त होने लगती है। ____ इस संसार में होने वाले समस्त अनर्थों का मूल केवल विषयासक्ति है। विषयों में ऐसा आकर्षण है कि ज्यों-ज्यों इनका सेवन किया जाता है त्यों-त्यों भोग लालसा बढ़ती चली जाती है। किन्तु महापुरुष अपने कठिन आत्म-संयम के द्वारा इस लिप्सा पर भी विजय प्राप्त कर ही लेते हैं। 'दशवकालिक सूत्र में कहा गया है
सद्देसु अ रुवेसु अ, गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । . न वि रज्जइ न वि दुस्सइ, एसा खलु इंदियप्पणिही।
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