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आनन्द-प्रवचन भाग-४
कवि का कहना है-अरे मानव ! तेरे मानवजन्म पाने से क्या लाभ हुआ, अर्थात् तूने जन्म लेकर क्या फायदा उठाया जबकि इस जन्म की कद्र नहीं समझी और अपने मन पर जिन भगवान की भक्ति का सच्चा रंग नहीं चढ़ाया।
'क्या तु नहीं देखता कि तेरे अन्दर सद् विचारों और सद्गुणों को लुटने एवं नष्ट कर देने वाले काम, क्रोध, मान, लोभ आदि लुटेरों ने डाका डाल दिया है और भयानक मार-काट मचादी है । यद्यपि अज्ञानी व्यक्ति तो इनके कुकृत्यों को समझ नहीं पाता और भविष्य में ये क्या परिणाम लायेंगे, इस भेद को नहीं समझ सकता। किन्तु बुद्धि और ज्ञान का अधिकारी बनने पर भी तूने इस रहस्य का पता क्यों नहीं लगाया ? घर में आग लगी हुई जानकर भी जो व्यक्ति कपट निद्रा में सोता रहता है। उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होता है ? क्या तू भी ऐसा ही मूर्ख है जो कि इन विकारों और कषायों का आत्मा पर आक्रमण होते हुए देखकर भी चुप बैठा है ? जरा समझ और ध्यानपूर्वक विचार कर कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं
फिरे भटकता दर-दर बन्दे, खोज अन्दर दी कीती नां, प्रीतम तेरे कोल सी वसदा, नजर तैनं पर आया नाँ । बिना दाग सी चोला मिल्या, दागोदाग लगाए ने,
कभी लगाकर ज्ञान का साबुन, इक वी दाग मिटाया नां ॥ कवि आगे कह रहा है—'अरे भोले प्राणी ! तू भगवान की खोज में दरदर भटकता रहा। कभी मन्दिर में गया, कभी मसजिद में । कभी गिरजाघर गया और कभी गुरुद्वारे में। कभी तू तीर्थस्थानों में पहुंचा और कभी गंगा में नहाया । इस प्रकार भगवान की खोज में इधर से उधर घूमता रहा । किन्तु उस प्रभु की खोज तूने अपने अन्दर कभी नहीं की। कभी यह नहीं सोचा, वह तो घट-घट में निवास करता है। जिसकी आत्मा शुद्ध, पवित्र और सरल है ईश्वर का निवास वहीं है, उससे अलग कोई उसका स्थान नहीं है। ___ इस प्रकार निश्चय ही तेरा आराध्य सदा से तेरे समीप ही रहा है किन्तु तूने उसकी अपने अन्दर खोज नहीं की अतः वह तुझे नजर नहीं आया । कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है किन्तु वह उसे पाने के लिये इतस्ततः दौड़ता रहता है। ठीक यही हाल तेरा भी हुआ है। और होता भी क्यों नहीं ? इसका कारण यह है कि तूने अपनी आत्मा को एवं अपनी दृष्टि को मलिन बना लिया है, ईश्वर ने तुझे इस संसार में पूर्णतया दाग रहित शरीर, मन और आत्मा के साथ भेजा था किन्तु तूने कुसंस्कारों को तथा दुर्गुणों को ग्रहण करके धीरे-धीरे
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