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छः चंचल वस्तुएं
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स्थिर करने में विरले ही महा-मानव समर्थ हो पाते हैं जो कि दृढ़ संयम के द्वारा अपनी इन्द्रियों को मारे, साथ ही मन को कब्जे में रखते हैं।
साधारण व्यक्ति की विसात ही नहीं है कि वह अपने मन को अपनी इच्छानुसार एक ही स्थान पर कुछ समय के लिये टिकाये रख सके। क्योंकि मन की चंचलता पारे के समान होती है । जिस प्रकार पारा एक जगह स्थिर नहीं रहता उसी प्रकार महान योगियों के अतिरिक्त किसी का भी मन एक ही वस्तु या विचार पर स्थिर नहीं रह सकता।
भगवद्गीता में मन को पवन के समान चपल बताया है। यह एक क्षण में यहाँ है तो दूसरे ही क्षण में न जाने कहाँ चला जाता है। इसे वश में करने की दुष्करता बताते हुए कहा
चञ्चलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये, वायोरिव सुदुष्करं ।। अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं- "यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है । अत्यन्त बलवान और दृढ़ है। मुझे तो ऐसा लगता है कि इसको वश में रखना वायु को वश में रखने के समान दुष्कर है।"
वस्तुतः मन की दौड़ का कोई ठिकाना नहीं है कि यह किस समय कहाँ रहता है और किस समय कहाँ चला जाता है। पर इसका यह भी अर्थ नहीं है कि इसे वश में किया ही नहीं जा सकता। ___ अगर मन का निग्रह करना संभव ही नहीं होता तो शास्त्रों में इसके निग्रह करने के उपायों का वर्णन भी नहीं किया जाता। हमारे तीर्थंकर वीतरागों ने तथा अनेक महापुरुषों ने इन्हीं शास्त्रोक्त उपायों से अपने मन का निग्रह किया है और तभी वे संयम-साधना करके अपने कर्मों को चूर कर पाए हैं। जब-जब भी उसके मन न अपनी चपलता दिखाई, उन्होंने उसे तिरस्कृत करते हुए कहा है
पाताल विशसि यासि नभो विलंध्य, दिङ् मण्डल भ्रमसि मानस चापलेन । भ्रान्त्यापि जातु विमल कथमात्मलीनं, तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ॥
-भर्तृहरि हे चित्त ! तू अपनी अत्यधिक चंचलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश के भी परे जाता है, दसों दिशाओं में घूमता है; या भूल से भी तू उस विमल परम ब्रह्म को स्मरण नहीं करता, जो तेरे हृदय में ही मौजूद है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द रूपी मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
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