________________
छ: चञ्चल वस्तुएं
१८६
किसी एक के पास नहीं रहता । वह कभी किसी के हाथ में आती है और कभी किसी के । अतः अहंकार वृथा है। ___ अहंकार महा अनर्थों का मूल है तथा आत्मगुणों का सर्वथा नाश करने वाला है । अहंकारी के हृदय में कभी परमात्मा का निवास नहीं हो सकता और जिससे परमात्मा दूर रहता है उसके दुखों का अन्त भी कैसे हो सकता है ? इसीलिए पूर्व में हमारे कहे गये श्लोक में मनुष्य को सीख दी गई हैं कि यौवन, आयुष्य, चित्त, छाया, लक्ष्मी एवं स्वामित्व, ये सब अति चंचल है अतः इन छहों की चंचलता को भली-भांति जानकर इनके लिए कभी गर्व मत करो तथा अपनी आत्मा को कर्मरत बनाओ। धर्माराधन के लिए किसी विशेष वस्तु की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए न राज्य चाहिए, न सत्ता । न शारीरिक बल चाहिए और न ही धन, जो कि सभी अनर्थों का मूल है। उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा है
धणेण कि धम्मधुराहिगारे ? . धर्म की धुरा को खींचने के लिये धन की क्या आवश्यकता है ?
आशय स्पष्ट है कि धर्म के लिये धन की नहीं वरन आत्मिक गुणों की आवश्यकता है, जिन्हें अपनाने पर इस लोक में तो प्रतिष्ठा प्राप्त होती ही है, परलोक में भी शाश्वत सुख हासिल होता है।
संस्कृत के एक श्लोक में भी बड़े सुन्दर ढंग से बताया है कि शाश्वत सुख की प्राप्ति के मार्ग क्या हैं ?
प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं, काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथा मूकभावःपरेषाम् । तृष्णास्रोतो विभंगो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा,
सामान्यः सर्वशास्त्र ष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पंथाः ।। अर्थात्-किसी भी जीव की हिंसा न करना, दूसरे के धन को न चुराना सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्य के अनुसार दान करना, पर-स्त्रियों की चर्चा न करना और कोई करता हो तो स्वयं मूक रहना, गुरुजनों के सामने नम्र रहना, सभी प्राणियों पर दया करना तथा भिन्न-भिन्न शास्त्रों में समान विश्वास रखना-ये सब नित्य एवं सच्चे सुख की प्राप्ति के अचूक मार्ग हैं ।
बंधुओ, आपने समझ लिया होगा कि श्लोक में बताए गए, गुणों से धर्म भिन्न नहीं है । आत्मा को निर्मल बनाने वाले इन गुणों का सामूहिक नाम ही धर्म है। जो व्यक्ति इन गुणों को अपने जीवन में उतार लेता है वह इस संसार रूपी घोर अटवी में आधि, व्याधि एवं उपाधि रूप दुखों से परितप्त नहीं होता तथा इस दुखमय संसार में पुनः नहीं आता। उसकी आत्मा संपूर्ण कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध-स्थान को प्राप्त करती है तथा अक्षयसुख की अधिकारिणी बन जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org