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कहां निकल जाऊँ या इलाही !
इसीलिये कवि कहता है- "बड़े दुख की बात है कि इस दुनिया के भोले प्राणी देख-परख कर भी कुए में जा गिरते हैं । यह नहीं सोचते कि वैसे भी हमें जीवन में जो क्षणभंगुर सुख प्राप्त हुए हैं, पिछले जन्मों में संचित किये पुण्य कर्मों के बल पर मिल सके हैं । पर अगर इस जीवन में कुछ नहीं किया तो आगे फिर क्या होगा ? पिछला कमाया हुआ तो समझो कि इस जीवन में भोग ही लिया है पर अब कमाई नहीं की तो अगले जन्म में क्या पाओगे ? श्री भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में कहा है :
यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं, यावच्च दूरे जरा, यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् ,
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ श्लोक में मानव को यही प्रेरणा दी है कि- जब तक तुम्हारा शरीर निरोग और तन्दुरुस्त है, बुढ़ापा दूर है तथा इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है तब तक आत्मा की भलाई के लिये प्रयत्न कर लो ! अन्यथा जब तुम्हारे इस सुन्दर और सशक्त सरीर को रोग जर्जर और कुरूप बना देंगे, इन्द्रियाँ शिथिल हो जायेंगी और वृद्धावस्था तुम्हें अपंग बना देगी तब फिर क्या कर सकोगे ? कुछ भी नहीं, और कुछ करने का प्रयत्न करोगे भी तो क्या तुम्हारी दशा उस अज्ञानी व्यक्ति के समान नहीं होगी जो घर में आग लग जाने के पश्चात कुआ खोदना प्रारम्भ करता है ? ____ इसलिये भाई ! जो बीत गई सो तो बीत ही गई, पर जितनी बाकी है उसको ही सार्थक करने के लिये आज ही, बल्कि अभी ही से प्रयत्न चालू कर दो। आज का काम कल पर मत डालो । क्योंकि मृत्यु तो हर समय घात लगाये ही रहती है। कहते भी हैं
. मौत तभी से ताक रही जब जीव जन्म लेता है। तो बन्धुओं ; जब वह सामने आजायेगी, फिर कुछ करते-धरते नहीं बनेगा । न उस समय मुह से परमात्मा का नाम ही निकल सकेगा और न ही हाथों से दान-पुण्य ही हो सकेगा। आज तो अगर दरवाजे पर कोई दीन-दुखी या भिखारी आ जाता है तो तुम तुरन्त कह देते हो- "आगे जाओ!" तुम्हारे पास अपनी सन्तान के लिये तो धन है। कहते हो सात पीढ़ियाँ खा लेंगी, किन्तु भिखारी को खाने के लिए एक रोटी भी देने में हिचकिचाते हो, उसे दुतकार कर आगे जाने को कह देते हो । कभी कह देते हो-"कोई है नहीं देनेवाला ।" अरे तुम स्वयं तो बैठे ही हो और नहीं तो घर भी भरा है खाली तो है नहीं। चाहने पर जो चाहो दे सकते हो । किन्तु इच्छा ही नहीं
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