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आनंन्द-प्र
“The better hart of valour is discretion.”
पराक्रम का प्रमुख अंग विवेक है ।
कहने का आशय यही है कि विवेक के जाग्रत हो जाने पर पुरुषार्थ भी सही दिशा में अपना कार्य करता है और उस हालत में वह अपने साधनामार्ग में आने वाली किसी भी बाधा से हतोत्साहित नहीं होता । बल्कि निश्चित होकर अपने मन रूपी मानस में पुण्य के बीजों का वपन करता है । उसका विवेक मानस-क्षेत्र में रही हुई विषय विकारों की मलिनता को हटाकर उसे शुद्ध बना देता है । और उस स्थिति में ही उसकी भक्ति, उपासना और तप साधना अपना सही प्रभाव डालती है ।
विवेकशील व्यक्ति ही अपने मन पर पूर्ण संयम रखता हुआ वचनयोग एवं शरीरयोग को सच्चे धर्म के साथ जोड़ सकता है । पुण्य और पाप की जननी मनुष्य की मनोवृत्ति ही होती है । वह अपने अन्तःकरण के विचारों से ही देवता और दानव बनता है । अगर उसके मानस में करुणा, दया, समता, सहानुभूति और संवेदना की लहरें उठती हैं तो वह निस्संदेह देवता है और अगर ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, ममता एवं निर्दयता का तूफान बहता है तो उसे दानव के अलावा और क्या कहा जा सकता है ?
- प्रवचन भाग --४
इसलिये बंधुओ, हमें यह अमूल्य मानव-भव पाकर दानव नहीं बनना है अपितु अपने उत्कृष्ट विचारों के अनुसार उत्कृष्ट आचरण करते हुए देवता ही नहीं परमात्मा बनने का प्रयत्न करना है ।
एक बात और भी मैं अपको यहाँ बताना चाहता हूँ कि यद्यपि पापकर्मों की अपेक्षा पुण्य कर्म अनन्त गुना श्रेष्ठ हैं, किन्तु पुण्य कर्मों का बंधन कर लेना ही मनुष्य जीवन के लक्ष्य की सिद्धि हो जाना नहीं है । क्योंकि पुण्यों का संचय करके आप भले ही स्वर्ग में देवता या इन्द्र भी बन जाएँ पर आखिर तो वहाँ का आयुष्य पूर्ण होते ही आपको पुनः जन्म और फिर मरण करना पड़ेगा। यानी अनन्त पुण्यों का संचय कर लेने पर भी जीव रहेगा तो संसार ही में । संसार से मुक्त वह नहीं हो सकता । संसार मुक्त तभी हुआ जा सकता है, जबकि पाप कर्मों के साथ-साथ पुण्य कर्म भी समाप्त हो जाँय ।
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उदाहरण के लिये हम पापों को लोहे की बेड़ी और पुण्यों को सोने की बेड़ियाँ कह सकते हैं । कष्ट कर दोनों हैं । भले ही पापों के कारण जीव को अधिक कष्ट भोगने पड़ते हैं और पुण्य से कम, पर कष्टों की परम्परा समाप्त नहीं हो जाती । जीवन में सुख अवश्य मिल सकते हैं पर जन्म-मरण के दुख कहां जाएँगे ? वे तो भोगने ही पड़ेंगे । इसीलिये हमारे शास्त्र पाप और पुण्य दोनों को बंधन मानते हुए कहते हैं
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