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१३ कहाँ निकल जाऊँ या इलाही !
धर्म प्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! ___ आज अपने विचार आपके समक्ष रखने से पहले मैं एक गाथा आपके समक्ष रख रहा हूँ। इस वह प्रकार है
पुरिसो ! रम पावकम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं । सन्ना इह काम मुच्छिया, मोहं जंति नरा असंवड़ा ।
गाथा में कहा गया है-हे पुरुष ! तुम पाप-कर्मों से विरत हो जाओ। काम-भोगों में मूछित रहने से तथा मोह में ग्रस्त रहने से तुम्हारा कल्याण नहीं हो सकेगा। असंवृत्त जीवन त्याग कर तुम निरासक्त भाव अपनाओ, क्योंकि मनुष्य का जीवन बहुत थोड़ा होता है।
आज के युग में हमारे अनेक भाई इस बात पर ध्यान नहीं देते । वे कहते हैं-स्वर्ग और नरक किसने देखा है ? कहीं कुछ भी नहीं है । जो है वह यही जन्म है, खाओ, पीओ मौज करो । उनका कथन है।
लोकायता वदन्त्येव, नास्ति देवो न निवृत्तिः । धर्माधमौं न विद्यते, न फलं पुण्य - पापयोः ।। पंचभूतात्मकं वस्तु, प्रत्यक्षं च प्रमाणकम् ।
नास्तिकानां मते नान्यदात्माऽमुत्र शुभाशुभम् ।। अर्थात् न तो कोई परमात्मा है न ही मुक्ति, न धर्म है और न अधर्म और न ही पुण्य या पाप का फल ही भोगना पड़ता है । यह समग्र संसार मात्र पांच भूतों में ही समाविष्ट है। यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के अलावा अन्य कोई भी वस्तु नहीं है । हम जो कुछ प्रत्यक्ष में देखते हैं बस
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