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आनन्द-प्रवचन भाग-४
यहाँ पुनः एक उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार एक पेड़ के कोटर में बैठा हुआ पक्षी उस पेड़ को काट देने पर भी नहीं मरता, उसी प्रकार ऊपरी साधना, भक्ति, तपस्या एवं अन्य बाहरी क्रियाएँ करने पर भी मन रूपी कोटर में बैठा हुआ कषाय रूपी पक्षी नहीं मरता । उसे नष्ट करने के लिये तो सीधे ही मन-कोटर में प्रवेश करके काम अथवा कषाय रूपी विहगम को पकड़ना पडेगा।
अर्थ स्पष्ट है कि विवेक रहित साधना करने से या बाह्य साधना के साथ ही मन को न साध पाने से मनुष्य को कभी इच्छित सिद्धि हासिल नहीं हो सकती।' अब भजन में तीसरा उदाहरण दिया गया है
अन्तर मलीन विषय मन मति, पावन करीये पखारे । मर ही न उरग अनेक यतन करी बाल्मीक विविध-विध मारे ।
माधव .....॥ कहते हैं-जब तक मन विषय-विकारों की गंदगी से मलिन है, तब तक साधना में शुद्धि कैसे आ सकती है और अशुद्ध साधना से कर्म किस प्रकार कट सकते हैं ? व्यक्ति अगर कोई कपड़ा रंगना चाहे तो पहले उसे कपड़े को पूर्णतया साफ करना पड़ेगा और तभी उस पर इच्छित रंग चढ़ेगा । इसी प्रकार मन पर भक्ति और विरक्ति का रंग चढ़ाने के लिये भी उसे पहले उसी प्रकार शुद्ध और स्वच्छ बनाना पड़ेगा जिस प्रकार किसान बीज बोने से पहले खेत में रहे हुए घास-फूस व काँटों को हटाता है । जब तक खेत साफ नहीं हो जाता तब तक उसमें बीज नहीं बोये जाते और बोने पर फसल अच्छी प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार मन के शुद्ध न होने पर उसमें शुद्ध कर्मों के बीज प्रथम तो बोये ही नहीं जा सकते और अगर बोने का प्रयत्न किया जाय तो वे फसल के रूप में नहीं आ सकते। इसलिये सबसे पहले मन को शुभ विचारों से पखार लेना चाहिये तभी हमारा मन-चाहा हो सकता है।
पद्य में सर्प और बांबी का उदाहरण भी दिया गया है कि सर्प अगर " बांबी में छिपा बैठा है तो बांबी पर चाहे जितने प्रहार किये जाँय वह मर
नहीं सकता इसी प्रकार मन रूपी बांबी में विषय विकार या कषाय का सर्प छिपा बैठा है तो शरीर को तपादि के द्वारा सुखा देने पर भी वह नाश को प्राप्त नहीं हो सकता । मैंने बचपन में एक भजन याद किया था
मन मेला तन का अति उज्ज्वल, बगले जैसा तोल । घोड़ा काष्ट का होंसन पूरे, बाजे न फूटा ढोल ॥
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