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मन के मते ना चालिये...
घी से पूर्णतया भरी हुई एक कड़ाही है और उसमें चन्द्रमा का प्रतिबिंब पड़ रहा है । पर सैकड़ों कल्पों तक ईधन जलाकर ओटाते रहने पर भी चन्द्रमा को नष्ट नहीं किया जा सकता, इसी प्रकार वर्षों तक जप-तप-पूजा उपासना आदि बाह्यक्रियाएँ करते रहने पर भी अगर वे अन्तर्मन को नहीं छूतीं तो कर्मों का नाश नहीं हो सकता तथा आत्मा संसार मुक्त नहीं हो सकती। भले ही कोई द्रव्यलिंगी मुनि ही क्यों न हों और वे पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पूर्णतया खयाल रखते हुए अपने आचार का भलीभांति पालन करते हों। किन्तु उनकी समस्त क्रियाएँ भी अगर मन पर पूर्ण संयम रखते हुए न की जाँय तो उनसे जैसा लाभ होना चाहिये, नहीं हो पाता । दूसरे शब्दों में मुनि भले ही व्यवहार चारित्र का पूर्णतया पालन करते हों पर अगर वे निश्चय चारित्र नहीं अपनाते तो आत्मा को जन्म-मरण से मुक्त नहीं कर पाते।
अभिप्राय यही है कि अन्तरंग को जोड़े बिना, अर्थात् मन पर संयम रखे बिना बाह्य क्रियाएँ चाहे जितनी और चाहे जितने वर्षों तक की जाय वे पागों को नष्ट नहीं कर सकतीं जिस प्रकार चन्द्रमा के प्रतिबिंब को वर्षों कड़ाही में औंटाने पर भी चन्द्रमा नष्ट नहीं किया जा सकता।
लोक व्यवहार में ही आप देखते हैं कि अगर किसी पेढी का मालिक अल्पवयस्क है, किन्तु उसका मुनीम ईमानदार और नमक हलाल है तो वह पेढ़ी को सम्हाल लेगा और अपने मालिक के प्रति बफादार होने के कारण पेढ़ी को धक्का नहीं लगने देगा । अपना आत्मा भी जीवन रूपी पेढ़ी का मालिक है और मन उसका मुनीम । अगर यह मन रूपी मुनीम जीवन-रूपी पेढ़ी के मालिक आत्मा का वफादार और हितचिन्तक है तो वह वचन एवं शरीर रूपी अन्य समस्त कर्मचारियों को अपने अनुशासन में सही मार्ग पर चलाता हुआ इस दुर्लभ जीवन-रूपी पेढ़ी को कदापि धक्का नहीं लगने देगा यानी इसे निरर्थक नहीं जाने देगा। और इसका पूर्णतया सदुपयोग करके शुभ कर्म रूपी नफा आत्मा को सोंप देगा। पर अगर यह अपने ही स्वार्थ यानी इन्द्रियों के विषयों के प्रति मोह में पड़ गया तो आत्मा को अपनी जीवनपेढ़ी से कोई लाभ नहीं होगा और यह मन-मुनीम उसे जबर्दस्त घाटा दिला. कर पुनः भव-सागर में गोते लगाने के लिये बाध्य कर देगा। भजन में आगे कहा गया है:
तरु कोटर मह बसे विहंगम, तरु काटे न मरे जैसे, साधन कार्य विचार होन मन, सिद्ध होय न तैसे ।
माधव..."
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