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आनन्द-प्रवचन भाग-४
तक वहीं था इस विषय में पूछा । व्यक्ति निर्धन अवश्य था किन्तु नीयत का साफ था । उसने पहले भी कहा था और पुनः थानेदार के पूछने पर भी कह दिया-"साहब, मैंने एक पाई भी इसमें से नहीं रखी है जैसे का तैसाही आपके पास लेकर आया हूँ ।” .. सत्य बोलने वाले का चेहरा छिपता नहीं, थानेदार को पहले ही उसका विश्वास था पर नोटों के मालिक के कहने पर पुनः उसे पूछना पड़ा और उसके उत्तर से उनका विश्वास पक्का हो गया कि इस व्यक्ति ने सचमुच ही एक पैसा भी इसमें से नहीं रखा है। इसके अलावा धन के मालिक का चेहरा स्वयं ही चुगली खा रहा था कि यह झूठ कह रहा है।
__ थानेदार को मन ही मन उस पर बड़ा क्रोध आया पर अपने काम करने के तरीके को ध्यान में रखते हुए उसने शांति से सेठ को संबोधित करते हुए कहा “सेठ जी ! अगर आपके पुड़े में अठारह हजार रुपये थे तो निश्चय ही आपका रुपयों का पुड़का दूसरा होगा। अत: आप इस समय तशरीफ ले जाइये और अगर आपके रुपयों के पुड़े का हमें पता चलेगा तो हम आपको बुलवा भेजेंगे, अपना पता दे जाइये।" ___ साथ ही उस निर्धन व्यक्ति से कहा -- "भाई ! यह रुपया तुम्हें मिला है अतः अभी तुम इसे ले जाओ। अगर इसका मालिक हमें मिलेगा तो हम तुमसे यह रुपया मंगवाकर उसे सोंप देंगे, अन्यथा तुम्हें मिला हुआ रुपया तुम्हारा है। तुमने चोरी तो की नहीं है जो किसी प्रकार का भय हो।" ___ तो बंधुओ, फिर उस पुड़े का मालिक कहाँ मिलता ? अतः रुपया निर्धन व्यक्ति को मिल गया और असली मालिक अपनी कपट नीति पर सिर पीटता हुआ वहाँ से चल दिया । क्योंकि उसके एक कथन के बाद दूसरी प्रकार की बात कहने पर कैसे विश्वास किया जाता ?
इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि रुपयों का मालिक सेठ झूठ बोलकर अपना पैसा तो लेना चाहता ही था साथ ही बिना दिये भी एक हजार रुपये का इनाम देने की उदारता को अपने नाम के साथ जोड़ना चाहता था । यही आज के मानव की करतूत है । क्या वह झूठ बोलकर पाप का बीज नहीं बो रहा था ? और उसका परिणाम दान या उदारता के पुण्य-फल के रूप में नहीं चाह रहा था ? निश्चय ही वह ऐसा चाहता था और इसीलिये मैं कहता हूँ कि आज व्यक्ति भले ही बाजरा बोकर गेहूँ और चना बोकर चावल न चाहे पर पाप का बीज बोकर पुण्य की फसल तो प्राप्त करना चाहता ही है जबकि पुण्य की फसल पुण्य का बीज बोकर ही प्राप्त की जा सकती है । जिस प्रकार उस निर्धन व्यक्ति ने अपनी नेकनीयती से प्राप्त की।
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