________________
मन के मते चालिये
१५५
इस पद्य में तृष्णा के मारे हाय-हाय करने वाले पुरुष को संबोधित करके कहा गया है—– अरे मूढ़ ! तू इस प्रकार दीन होकर क्यों • घर-घर मारामारा फिरता है ? देखी हुई बात है कि तेरा पेट तो बहुत भी खाए तो सेर भर आटे में भर सकता है, पर प्रभु तो समुद्र में रहनेवाले प्राणी के चार कोस लम्बे शरीर को भी खुराक पहुँचा देते हैं । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि संसार में कोई भी प्राणी भूखा नहीं रहता । ईश्वर चींटी और हाथी सभी का पेट भरता है । क्या मैंने यह बात तुझे बार-बार नहीं समझाई है ? फिर क्यों नहीं इस पर विश्वास करके रात-दिन हाय-हाय करता है ।
तो मैं आपको बता यह रहा था कि सत्रह हजार रुपये प्राप्त करने वाले निर्धन व्यक्ति की पत्नी ने अपने पति से कहा कि हमें यह रुपया पराया धन मानकर अपने पास नहीं रखना है और आप कोशिश करो कि जिसका यह रुपया है, उसे ही मिल जाय ।
'नेकी और बूझ बूझ ।' पति तो यह चाहता ही था । अतः वह सीधा थाने में पहुँचा और थानेदार के समक्ष रुपयों का पुड़ा रखते हुए उन्हें सारी बात बताई | थानेदार उस निर्लोभी व्यक्ति की सचाई से अत्यन्त प्रभावित हुआ और मन ही मन उसके समक्ष श्रद्धा से मस्तक झुकाते हुए उसने नोटों को वहाँ जमा किया।
ठीक उसी समय वह श्रीमंत भी, जिसके नोट गुम गए थे, वहाँ आया और उसने अपने रुपये गुम हो जाने की रिपोर्ट लिखानी चाही । उसी समय उसकी दृष्टि थानेदार के समक्ष मेज पर पड़े हुए रुपयों के पुड़े पर पड़ी और उसने कहा – “थानेदार साहब ! यही मेरा नोटों का पुड़का है । मैं ही इसका मालिक हूँ ।"
थानेदार बोला – “आपके कितने रुपये पुड़े में थे ?"
उत्तर देने के लिये सेठ ने मुँह खोला ही था कि उसके मन में विचार आया- -'अगर में सत्रह हजार रुपयों के लिये ही कहता हूँ तो अभी इसमें से इसे पाने वाले व्यक्ति को इनाम देना पड़ेगा । अतः एक हजार अधिक बता दूँ तो यह साबित हो जाएगा कि एक हजार रुपया इसे यहाँ लाने वाले ने रख लिया है तो फिर उसे कुछ देना नहीं पड़ेगा ।'
यह विचार कर उस बदनीयतवाले श्रेष्ठि ने उत्तर दिया- " थानेदार साहब ! इस पुड़के में मेरा अठ्ठारह हजार रुपया था ।"
थानेदार चकराया, पर उसने पुड़ का लाने वाले व्यक्ति से जो कि तब
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org