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१२ | मन के मते न चालिये
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
हमारा जैन दर्शन मन, वचन एवं काया को स्थिर रखते हुए एकाग्र चिंतन का आदेश देता है । यानी मन को स्थिर करो, वचन को काबू में रखो और काया को भी अनुशासनपूर्वक चलाओ। क्योंकि ये तीनों ही पापों का उपार्जन करते हैं।
क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कषाय मोह को भी साथ लेकर जब मन, वचन और शरीर, इन तीनों योगों से मिलते हैं तो कर्मों का बंधन होता है। यद्यपि तीर्थंकर में भी मन, वचन और काया ये तीनों योग होते हैं, किन्तु उनके कर्म नहीं बँधते। इसका कारण यही है कि उनमें कषाय नहीं होते । जहाँ कषाय होते हैं वहीं कर्म बँधते हैं। इसलिये जहाँ कषायों पर प्रतिबंध लगाना आवश्यक है वहाँ तीनों योगों को भी काबू में रखना जरूरी है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है:
तुलसी ये तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पुण्य, पाप दो बीज हैं बवे सो लवे सुजान ॥ दोहे में बड़ी सुन्दर बात बताई गई है कि मनुष्य का शरीर एक खेत के समान है और मन, वचन तथा कर्म ये किसान हैं । ये तीनों किसान खेती करते हैं और फसल पैदा किया करते हैं। प्रश्न उठता है कि मन, वचन और कर्मरूपी किसान इस शरीर रूपी क्षेत्र में बीज किस प्रकार के बोते हैं ? उत्तर दोहे में आगे दिया गया है कि शरीर-रूपी खेत में बोये जा सकनेवाले बीज दो प्रकार के होते हैं । एक पाप के और दूसरे पुण्य के । तो तीन योग रूपी
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