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१.३२
आनन्द-प्रवचन भाग--४ होते, फिर क्यों मुझे उसकी श्रेणी में रखते हो ? वह कभी भी मेरी तुलना नहीं कर सकता।
तो बंधूओ, गधे ने भी निर्गुणी की तुलना में अपने आपको रखने से इन्कार कर दिया । तब फिर कवियों ने उसे तृण की उपमा देना चाहा और भर्तृहरि के श्लोक में फिर परि परिवर्तन किया जिन मनुष्यों में विद्या, तप, दान, ज्ञान तथा शील आदि गुण नहीं है वे
'मनुष्य रूपेण तृणानि सन्ति ।' । अर्थात्-वे निर्गुणी व्यक्ति मनुष्य के रूप में तृण के समान हैं । पर अब देखि ये तृण क्या कहता है ?
कहत तरणा तब गाय को आहार हूँ मैं, होत है अधिक क्षीर सो तो खीर म्हारी है । वर्षा ऋतु मांहि शोभा, होत है जंगल बीच, छावत छप्पर घर चवे न लगारो है । शीतकाल बिछावे तो होत है गरम अंग, ताप किया तत्काल शीत होत न्यारी है।
और भी अनेक गुण, मोय में नराधिपत,
निगुणी की उपमा न लागत हमारी है। कितनी विलक्षण बात है कि जब निर्गुणी को तृण की उपमा दी गई तो वह भी कविवर पूज्यपाद श्री त्रिलोकऋषि जी महाराज को पसन्द नहीं आई
और उन्होंने तृण का पक्ष लेकर उत्तर दिया कि यह भी सही नहीं है । तृण गुणहीन नहीं, वह कहता है___ "मैं तो पशुओं का आहार हूँ । घोड़े, बैल, गधे आदि सब मुझे खाकर ही दिनरात मनुष्यों का काम करते हैं और गाय मुझे ही उदरस्थ करके आपको अधिक दूध देती है जिससे आप मिठाइयाँ बनाते हैं तथा भोजन की सबसे मधुर वस्तु खीर भी बनाते हैं । यह मेरे कारण ही तो । अगर मैं न होऊँ तो गाय खायेगी क्या ? आप सब जानते ही हैं कि अकाल पड़ने पर जब मैं पैदा नहीं होता तो पशु कृशकाय हो जाते हैं और मर भी जाते हैं।"
"दूसरे जब वर्षाऋतु आती है तो मेरी बजह से ही जंगल की शोभा में वृद्धि होती है, चारों ओर सुन्दर हरियाली छा जाती है और देखने वालों का मन प्रसन्न होता है । सारे बाग-बगीचे और घर के सामने बने हुए लॉन मेरी बजह से ही शोभा पाते हैं।"
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