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आज काल कि पांच दिन जंगल होगा वास !
एतैरेवाष्टभिः पुष्पैस्तुष्यते चाचितो हरिः। पुष्पान्तराणि सन्त्येवं बाह्यानि नृपसत्तम ॥
-पद्मपुराण पद्मपुराण में वेदव्यासजी ने कहा है----
पहला अहिंसा, दूसरा इन्द्रियसंयम, तीसरा जीवां पर दया करना, चौथा क्षमा, पांचवां शम, छठा दम, सातवां ध्यान तथा आठवां पुष्प सत्य होता है। इन पुष्पों के द्वारा भगवान संतुष्ट होते हैं। हे नृपश्रेष्ठ ! अन्य पुष्प तो पूजा के बाह्य अंग हैं, भगवान तो उपर्युक्त आठ पुष्पों से पूजित होने पर ही प्रसन्न होते हैं । ___श्लोक में अत्यन्त सुन्दर और सत्य कथन दिया गया है। वास्तव में पुजा दो प्रकार की होती है-(१) द्रव्य पूजा (२) भाव पूजा।
आज हम शहरों और गांवों में सहज ही देख सकते हैं कि मंदिरों में फूल, नैवेद्य आदि चढ़ाते हुए तथा घंटे-टोकरी बजाकर आरती करते हुए व्यक्ति भगवान को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं । किन्तु उस पूजन क्रिया के साथ अंतरंग कितना जुड़ा हुआ होता है यह उनके जीवन से मालूम पड़ सकता है। यानी दुनियादारी के प्रपंचों में आकंठ डूबे हुए तथा एक-एक पैसे के लिए वे दुकान पर ग्राहक को धोखा देते हुए, अधिक से अधिक धन वृद्धि की लालसा से बात-बात में झूठ बोलते हुए तथा अपने धन और बड़प्पन के नशे में चर रहकर निर्धनों पर अत्याचार करते हुए भी वे ही लोग देखे जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनकी द्रव्य पूजा क्या परमात्मा को प्रसन्न कर सकती है ? नहीं, जो पूजा अन्तर्मन से नहीं की गई ही उसका कभी श्रेष्ठ फल नहीं मिल सकता।
श्रेष्ठ फल उस पूजा का ही मिलता है, जो अन्तर्मन से की गई हो। और और वह पूजा जैसी की श्लोक में बताई गई है आत्मा से संबंध रखती है। जिस व्यक्ति के हृदय में हिंसा की भावना नहीं होती तथा संसार के समस्त प्राणियों के प्रति स्नेह और दया की भावना होती है, वही सच्चे मायने में परमात्मा को प्रसन्न कर सकता है।
भक्त दामाजी कहा जाता है कि महाराष्ट्र के एक गांव में दामाजी नामक एक अत्यन्त दयालु व्यक्ति रहता था। किसी भी दुखी का दुख देखकर वह द्रवित हो जाता, और प्राणपण से उसे दुख-मुक्त करने का प्रयत्न करता था। उसका एक नियम यह भी था कि अपने घर आए हुए किसी भी अतिथि को वह भूखा नहीं लौटने देता था।
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