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तुलसी ऊधबर के भये, ज्यों बंधूर के पान
मान और ऊँच-नीच का भेदभाव भूल जाते हैं तब नालियों में से मुझे ही कीचड़ के रूप में लेकर एक-दूसरे पर उछालते हैं । तथा व्यापारी बही खाता करते समय अक्षर लिखते जाते हैं और उन गीले अक्षरों पर मुझे डाल डालकर तुरन्त सुखा लेते हैं । यह उदाहरण लोग प्रेम की परीक्षा के लिये भी देते हैं । कहते हैं
"चलत कलम सुखत अक्षर, यही प्रेम का मूल । ... नेह टूटे गोला रहे, ताके मुंह पड़े धूल ।” - मिट्टी आगे कहती है - "जहाँ ऊँची नीची जगह हो और कंकर पत्थर पैरों में चुभते हो वहाँ मुझे बिछाते ही जमीन नरम हो जाती है, पैरों में कुछ नहीं चुभता । और ब्याह-शादी या कोई भी अन्य समारोह होता है सबसे पहले शोभा बढ़ाने के लिये मुझे जमीन पर बिछाते हैं और उसके बाद ही मंडप या पंडाल बनाते हैं । मेरा उपयोग धर्म कार्य में भी होता है। अनपढ़ बहन काच की दो तरफी घड़ियों बनवाकर मुझे उसमें भरवा लेती हैं और मैं बड़े हिसाब से दूसरी और गिरकर उनके सामायिक का समय पूर्ण हुआ कि नहीं यह बता देती हूँ।"
"इस प्रकार मुझ में तो अनेक गुण हैं, जिन्हें गिनाया नहीं जा सकता। अतः हे नराधिप, मेरी तुलना गुणहीन से कदापि नहीं की जा सकती। क्या वह मेरे मुकाबले में ठहर सकता है ? नहीं, फिर उसके लिये मेरी उपमा आप देते ही क्यों हैं ?" ___ तो बंधुओ, निर्गुणी पुरुष की उपमा देने के लिये कवियों ने मृग, गाय, श्वान, खर, वृक्ष, तृण तथा धूल तक नाम सुझाया किन्तु इन सभी ने अपनेअपने अनेक गुणों का दिग्दर्शन कराकर उसकी तुलना में अपने आपको रखने से इन्कार कर दिया।
यह रूपक हैं और कविकुल भूषण पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी म० ने प्रस्तुत किये हैं । यद्यपि पशु, पेड़, पौधे या धूल ये सब बोलते नहीं हैं किन्तु उनके इन गुणों से कदापि इन्कार नहीं किया जा सकता । महाराज श्री ने उनके द्वारा कहा जाना तो काव्य में मनोरजकता और कलापूर्णता लाने के लिये दर्शाया है। वह भी इसलिये कि उनके गुण यथार्थ हैं और वे स्वयं उनके द्वारा कहे हुए बताए जाँय या अन्य किसी के द्वारा ही कहे जाँय । अन्त में आप कहते हैं:
मृग, गाय, श्वान, खर, तृण, वृक्ष धूल ही ते, नेष्ट है अधिक मूल, मात भार भारी है।
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