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इन्सान ही ईश्वर बन सकता है !
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ऐसी चंचल चाल, इत कबहूँ नहिं आयौ । बुद्धि सदन को पाय, छिनहूँ नहिं ताहि छुवायौ । देख्यो नहिं निज रूप, कूप अमृत को छांद्यौ।
ऐ रे मन मतिमूढ़ ! क्यों न भव-वारिधि फांद्यौ । कोई भव्य प्राणी बहुत काल तक बाह्य स्थानों में धर्म, शांति अथवा ईश्वर की खोज में भटकने के पश्चात् जब धर्म के मर्म को समझ लेता है तो अपने मन को ताड़ना देते हुए कहता है-"अरे मूढ़ मन ! तू सच्चे सुख की खोज में आकाश को उलाँघ गया, पाताल में प्रवेश कर गया और अपनी चंचल चाल से दसों दिशाओं में निरर्थक घूमता रहा, किन्तु कभी इधर आत्मा के अन्दर नहीं आया। अपने पास बुद्धि का खजाना होते हुए भी तूने उसका उपयोग करके आत्मा में नहीं झांका । कभी तूने नहीं देखा कि सुख रूपी अमृत का कुआ तो तेरे अन्दर ही हिलोरें ले रहा है । अरे मूर्ख मन ! तूने अब तक इस आत्म-रूप नाव में चढकर भव-सागर को क्यों नहीं पार कर लिया ?
सारांश कवि के कहने का यही है कि अज्ञानी लोग 'बगल में छोरा और शहर में ढिंढोरा ।' यह कहावत चरितार्थ करते हैं। यानी ईश्वर को, जो कि आत्मा के अन्दर ही है, वहां न खोजकर उसे पाने के लिए नाना तीर्थों में भटकते हैं किन्तु वहां वह मिलता भी नहीं और वृथा परेशानी होती है। कवि की बात ठीक ही है, क्योंकि जो अन्दर है वह बाहर कैसे प्राप्त हो सकता है ? ___ तो हमारा विषय गुजराती कविता के आधार पर यह चल रहा था कि नयनों में प्रेम का अमृत, हृदय में रहम और किसी के कहे गए कुवचनों को कानों तक ही सीमित रखकर मनुष्य भला बने और ओरों का भला करने का प्रयत्न करे । जो व्यक्ति ओरों की भलाई अथवा परोपकार करने की भावना नहीं रखता वह मनुष्य होकर भी मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। परोपकार ही मनुष्य को सदाचारी बनाता है तथा उसे ऊंचा उठाता है। फारसी भाषा के कवि शेखसादी ने कहा है
चूं इन्सारा न बाशद फजलो ऐहसां ।
जे फर्कज आदमी ता नक्श दीवार ॥ यदि मनुष्य में भलाई करने की भावना नहीं है तो उसमें और दीवार पर अंकित किए गए चित्र में क्या अन्तर है ?
परोपकार के लिए महापुरुषों ने क्या क्या नहीं किया ? दधीचि ने अपनी हड्डियां दान कर दी थीं, सोलहवे तीर्थंकर श्री शांतिनाथ जी भगवान के पूर्व
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